Description
मेरे साक्षात्कार : हिमांशु जोशी
लेखक की सर्वप्रथम प्रतिबद्धता किसी “वाद” से उतनी नहीं, जितनी जन से है, आदमी में | हम जो भी लिखते हैं, जो भी जीते हैं, जो भी सोचते हैं, उसके मूल में कहीं मनुष्य ही सर्वोपरि पात्र होता है। उसकी अच्छाई-बुराई, सफलता-विफलता, सुख-दुःख से ही हम गहरे जुड़े होते हैं। उसके उज्ज्वल भविष्य के ही हम सपने देखते हैं । यही किसी व्यक्ति तथा साहित्य की, किसी संस्कृति या राजनीति की अंतिम परिणति भी होनी चाहिए।
* टॉल्सटाय को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, चेखव को भी नहीं, प्रेमचंद, शरत् को भी नहीं। और भी बहुत बड़े-बड़े लेखक हैं, जिनको कोई विशेष पुरस्कार या सम्मान प्राप्त नहीं हुए । किंतु इससे उनके लेखकीय व्यक्तित्व पर कोई अंतर नहीं आया। जिन पर अंतर आता है वे दोयम दर्जे के लेखक होते हैं।
* जब लेखक किसी जुड़े हुए, जिए हुए स्थान से दूर जाता है, तब वह अधिक स्पष्टता के साथ उसे देख पाता है। पहाड़ों का जीवन कभी स्वयं मेरा जीवन रहा है। जब वहाँ से हटकर दिल्ली में आया तो अतीत सहसा आकार लेकर जीवंत हो उठा। यह मेरे साथ ही नहीं, सबके साथ होता है। नाटककार इब्सन ने सबसे अधिक निर्वासन में ही लिखा है।
* किसी भी भाषा एवं साहित्य के अस्तित्व के लिए स्वतंत्र लेखन एक अनिवार्य शर्त है; क्योंकि व्यवस्था का विरोध और मूल्यों की स्थापना में सहयोग वही दे सकता है, सच को सच वही कह सकता है, जो अनेक बंधनों-दबावों से मुक्त है। यही औधघड़-निर्भीक व्यक्तित्व सही अर्थों में सही साहित्य का सृजन करने में सक्षम हो पाता है। इसलिए स्वतंत्र लेखन की प्रवृत्ति को हर तरह से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं ।
* जो अर्थ-प्रधान व्यवस्था इस राजनीतिक वातावरण ने हमें दी है, जहाँ मानव-मूल्य पीछे और धन का प्रभाव अग्रणी है, वहाँ अनेक विषमताओं के अर्थ स्वयं खुल जाते हैं। भौतिकवादी व्यवस्था में न्याय के और मानवीय संवेदनाओं के लिए बहुत कम स्थान रह जाता है। इसीलिए इसका अंत होता है शोषण से। वह शोषण किसी भी रूप में, किसी भी प्रकार का हो सकता है।
-इसी पुस्तक से