Description
अजीत कौर पंजाबी की वरिष्ठ कथाकार हैं और दो खंडों में प्रकाशित उनकी आत्मकथा बेजोड़ है जो न तो नॉस्टैल्जिया है, न रोमांटिक क्षणों के जुगनू पकड़ने की लालसा। यह बीते समय की चीर-फाड़ है जो आखि़र में निजी अंधेरों की ओर पीठ कर लेती है और वर्तमान से रूबरू होती है। उनकी आत्मकथा गुज़रे वक़्त की राख में से जलते पंखों वाले पक्षी की तरह उठती है और नई दिशाओं की खोज में उड़ान भरती है।
अनेक कहानी-संग्रह तथा उपन्यास प्रकाशित। उल्लेखनीयः ‘गुलबानो’, ‘महिक दी मौत’, ‘बुतशिकन’, ‘प़फ़ालतू औरत’, ‘सावियां चिड़ियां’, ‘मौत अली बाबे दी’, ‘काले कुएं’, ‘ना मारो’, ‘नवंबर चौरासी’, ‘नहीं सानू कोई तकलीप़फ़ नहीं’, ‘क़साईबाड़ा’, ‘दस प्रतिनिधि कहानियां’ (कहानी-संग्रह), ‘धुप्प वाला शहर’, ‘पोस्टमार्टम’, ‘गौरी’ (उपन्यास), ‘तकिये दा पीर’ (रेखाचित्र), ‘कच्चे रंगां दा शहर: लंदन’ (यात्रवृत्त), ‘ख़ानाबदोश’, ‘कूड़ा-कबाड़ा’ (आत्मकथा)।
उनकी कृतियों के अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं और उनकी रचनाओं को कई अंतर्राष्ट्रीय संकलनों में शामिल किया गया है।
1986 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार अजीत कौर को उनकी आत्मकथा ‘ख़ानाबदोश’ के लिए दिया गया और 2006 में उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
पूरी दुनिया से जब एक हज़ार प्रतिबद्ध महिलाओं को अमन के लिए जिं़दगी समर्पित कर देने के उपलक्ष्य में, दो साल की खोजबीन के बाद, नोबेल शांति पुरस्कार के लिए इकट्ठा किया गया तो अजीत कौर भी उनमें शामिल थीं।
अजीत कौर कहती हैं: मैं तो ‘मैड ड्रीमर’ हूं। पागल, सपने-साज़। सिर्प़फ़ नासमझी के काम किए हैं, सिवाय इसके कि विलक्षण प्रतिभासंपन्न बेटी अर्पणा कौर को जन्म देकर, उसे बड़ी मुहब्बत से तराशा है। उसका नाम लेकर वह गर्व से कहती हैं: हां, मैं अर्पणा की मां हूं।
एक विशिष्ट कथाकार, जुझारू महिला और अद्भुत इंसान का नाम है अजीत कौर।