नाट्यचिंतन और रंगदर्शन : अंतर्सबंध
पिछले कई दशकों में विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों के माध्यम से ही नाट्यसमीक्षा और रंगमंच का नया और परिपक्व रूप उद्घाटित होता गया है। इस दृष्टि से वरिष्ठ नाट्यचिंतक, रंगकर्मी, निर्देशक और नाटककार गिरीश रस्तोगी की अपनी बेहद तेज पर सर्जनात्मक और स्पष्ट नाट्यदृष्टि से संपन्न अनेक रचनाओं का हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यह पुस्तक भी रंगभाषा, नाट्यचिंतन और रंगदर्शन के आंतरिक संबंध को अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर दिखाती है। दरअसल यह समूचा इतिहास साथ लेकर चलते हुए विचार, संघर्ष, बदलता हुआ समय, समय की नई-नई मांगें इस प्रकार लेकर चलती है कि पुस्तक अपने में रोमांचक, संवेदनात्मक, चिंतनप्रधान और साहित्य और रंगमंच की समूची हलचलों के बीच सघन और दार्शनिक बनती चली जाती है।
इस पुस्तक में व्यापक, आधुनिकतम और गहन विश्वदृष्टि उल्लेखनीय है। इस अर्थ में बर्तोल्त ब्रेखत का नाट्यचिंतन और रंगदर्शन बहुत गंभीर है। पश्चिमी नाट्यचिंतन के साथ-साथ यह भारतीय नाटककार और रंगमंच को भी परखती चलती है। लेखिका प्राचीन नाटककारों को नई दृष्टि से देखती है तो साहित्य और रंगमंच के साथ ही आलोचना को भी नए ढंग से देखती है।
कई मानों में नाटक का साहित्य और रंगमंच से जो रिश्ता टूटता-बनता रहा और प्रश्न पर प्रश्न उठते रहे-चिंतन और रंगदर्शन के अंतर्सबंध बनते-बदलते रहे। यह पुस्तक उन सबसे साक्षात्कार कराती है-चाहे संस्मरणों के जरिए, चाहे पत्र के जरिए या दुंद्वात्मक संवेदना के जरिए। कुछ महत्त्वपूर्ण नाटककारों का विशद् अध्ययन-चिंतन भी यह स्थापित करता है कि मंचनों से ही नाट्यचिंतन और रंगदर्शन की अंतरंगता विकसित होती जाती हे, क्योंकि नाटक और रंगमंच एक जीवित माध्यम हैं, अन्यथा वह कुंठित हो जाती हेै। दर्शक, पाठक, आलोचक सभी को उत्सुक करने वाली हे यह पुस्तक।