Description
पिछल वर्षों में काम-काज के स्तर पर हिंदी अनेक नई-नई दिशाओं में अग्रसर हुई है। ज्यों-ज्यों क्रमशः इन नई दिशाओं का उन्मेष हुआ है त्यों-त्यों वह नए रूपों में ढली है। उसके ये नए-नए संक्रांतिकालीन रूप अटपटे-से भी लगते हैं और अजनबी भी। कुछ हद तक तो यह स्वाभाविक है, पर कुछ हद तक यह अनभ्यस्त और अनाड़ी हाथों में ‘चमत्कार- भी होता है। अतः इन नए रूपों के अलग-अलग और समवेत अध्ययन की आज बड़ी आवश्यकता है। इससे विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी माध्यम से काम करने वालों को दिर्शादर्शन भाी मिलेगा और उसके विविध रूपों का मानकीकरण और स्थिरीकरण भी होगा। विस्तार के इस युग में व्यवस्था और समन्वय की आवश्यकता निर्विवाद है।
प्रस्तुत रचना इस प्रकार के अध्ययन की दिशा में एक विनम्र प्रयास है।