हंसबलाका
‘हंसबलाका’ हिंदी संस्मरण साहित्य को आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की अन्यतम देन है। इसका प्रथम प्रकाशन 1982 ई. में हुआ था। प्रकाशित होने पर हिंदी समाज में इसका व्यापक स्वागत हुआ। प्रसाद, निराला, जैनेंद्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय आदि महान् लेखकों के जीवन और साहित्य को तथा स्वयं अपने जीवन को नए ढंग से देखने का यह प्रयास अपने तरह का अकेला है। यह मात्र संस्मरण की पुस्तक भर नहीं है। यहाँ हिंदी के सांस्कृतिक गद्य का ऐसा रूप है, जिसमें हमारी परंपरा और समय दोनों अपने सबसे उदात्त रूप में प्रस्तुत हुए हैं। इन संस्मरणों में प्राचीन भारत की गूँज-अनुगूँज तो है ही, आधुनिक सांस्कृतिक जगत् की यथार्थ चेतना भी है। ‘हंसबलाका’ के संस्मरणों से गुजरते हुए हम आलोच्य व्यक्ति को तो नए रूप में देखते ही हैं, अपनी सांस्कृतिक विरासत को भी सर्वथा नए रूप में पाते हैं। बिना किसी दुविधा के कहा जा सकता है कि ‘हंसबलाका’ के प्रकाशन से हिंदी संस्मरण साहित्य का सबसे पुष्ट और प्रखर रूप सामने आता है। ‘हंसबलाका’ हिंदी संस्मरण साहित्य का सर्वोच्च शिखर है।
—गोपेश्वर सिंह