Description
डायरी—एक लेखक की डायरी तो ख़ास तौर पर— मुझे लगता है— तभी उसके ख़ुद के अलावा दूसरों के भी काम की चीज़ हो सकती है जब उसमें दर्ज हुई बातें कुछ ऐसी हों, जिनमें बहुत अलग-अलग स्वभावों, रुचियों और दृष्टियों वाले सहृदय पाठक भी साझा कर सकें। लेखक का प्राकृतिक और मानवीय पास-पड़ोस, उसके राग-विराग, आकर्षण-विकर्षण, उसकी रीझ-बूझ या नैतिक कल्पना-संवेदना को उत्तेजित करने वाली घटनाएँ, प्रवृत्तियाँ यहाँ तक कि अध्ययन प्रसंग तक, उसके सर्वथा निजी ऊहापोह भी क्या किन्हीं औरों के लिए रुचिकर और सार्थक नहीं हो सकते ? हम सभी मानवजीव निरपवाद रूप से रात-दिन अपने आप से और अपने आसपास की दुनिया से झगड़ते रहते हैं। जिस झगड़ने में कभी-कभी दूर या निकट के हमारे पुरखों की प्रतिध्वनियाँ भी अपने आप शामिल हो जाती हैं। तो यह जो अस्त्र आत्मालाप या वाद-विवाद-संवाद हमारे चाहे-अनचाहे ही हमारे भीतर चलता रहता है— डायरी क्या उसी को पकड़ने और दर्ज कर लेने की अंतर्विवशता के कारण ही नहीं लिखी जाती ? कम से कम एक तो कारण उसके लिखे जाने का यह हो ही सकता है। जिसे बाक़ायदा याकि औपचारिक विधाओं का लेखन कहा जाता है, उसके साथ इस ‘डायरी’ नाम की बे-क़ायदा और अनौपचारिक विधा का क्या संबंध है ? क्या डायरी लेखक की आत्मकथा या उसके संस्मरणों की गठरी है ? निश्चय ही नहीं, भले ही दोनों से उसकी कुछ ज़्यादा नज़दीकी हो। संभवतः यह जिज्ञासा भी ‘डायरी’ के जीवन का ही अनिवार्य अंग हो—उसकी अंतःप्रेरणा। -रमेशचन्द्र शाह