शैलीविज्ञान
साहित्य में अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से होती है, इसीलिए साहित्य का समुचित अध्ययन इस माध्यम के विवेचन-विश्लेषण के बिना संभव नहीं। शैलीविज्ञान मुख्यतः इसी विश्लेषण-विवेचन से संबद्ध है। वह साहित्यिक भाषा के सर्जनात्मक प्रयोगों का व्याकरण हैµभाषोन्मुखी आलोचना है। प्रस्तुत पुस्तक इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है।
शैलीविज्ञान पर भारतीय भाषाओं में तो कम, किंतु कुछ यूरोपीय भाषाओं में काफी साहित्य प्रकाश में आया है, फिर भी अभी तक शैलीविज्ञान के सभी अंगों-उपांगों का विवेचन नहीं हो सका है।
पाश्चात्य और भारतीय काव्यशास्त्रा में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो प्रत्यक्षतः या परोक्षतः शैलीविज्ञान की बहुत-सी बातों के बहुत पास हैं; किंतु इसका अर्थ
यह नहीं कि शैलीविज्ञान में कुछ भी नया नहीं है।
यह साहित्य की भाषापरक आलोचना है और इस रूप
में यह साहित्य के अध्ययन की एक अपेक्षाकृत नई
दृष्टि है।
कुछ लोग शैलीविज्ञान को साहित्य की भाषिक चीड़-फाड़ एवं शुष्क गणितीय व्याख्या आदि कहते
हैं। वस्तुतः साहित्य का इस प्रकार का भी विश्लेषण
हुआ है, हो सकता है, किंतु सच्चे अर्थों में वह पूर्व- शैलीविज्ञान है।
लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में शैलीविज्ञान के प्रायः उसी रूप को लेने का यत्न किया है, जो भाषिक आधारों पर, बिना नीरस हुए, साहित्य के बाह्य और आंतरिक सौंदर्य की व्याख्या करता है।