कागज की नाव (व्यास सम्मान से पुरस्कृत कृति)


N Kaagazkinav

…महलका अभी सोकर उठी थी कि उसने देखा मम्मी और पापा उसके घर के आंगन में खड़े हैं। वह ताज्जुब से आगे बढ़ी। सलाम कर उन्हें अपने कमरे की तरफ ले जाने लगी तो अमजद ने कहा, “पहले जहूर साहब से मिल लूं फिर आता हूं।”

महलका के चेहरे का रंग यह सुनकर उड़्‌ गया मगर वह बड़ी खुशदिली से बोली, “क्यों नहीं पापा।”

गोलू आगे-आगे चलता हुआ उन्हें जहूर मियां के कमरे की तरफ ले गया। कमरे में घुसते ही बदबू का एक भभका दोनों की नाक में घुसा। जहूर चुपचाप बैठे थे। पास में रखी चाय की जूठी प्याली पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। कमरे में धूल और गंदगी थी। बिस्तर की सफेद चादर पर कई तरह के धब्बे थे।

जहूर मियां ने धुंधली आंखों से देखा और पूछा, “कौन?”

“मैं अमजद, महलका का पापा…” अमजद ने बड़े संकोच भरे स्वर में कहा। यह सुनकर जहूर मियां सटपटा से गए। हड़बड़ाकर जो खड़े हुए तो लड्खड़ाकर गिरते-गिरते बचे।

“बैठे रहिए…बैठे रहिए।” अमजद ने उन्हें सहारा दिया। महजबीं का चेहरा फक् था। बदन का खून जैसे जम गया था। आवाज गले में ऐसी फंसी कि वह आगे बढ़कर सलाम तक न कर सकीं।

“आप अगर पसंद करें तो कुछ देर के लिए बाहर दालान में चलकर बैठते हैं।” अमजद ने जहूर मियां से आग्रह भरे लहजे में कहा।

“अम्मां मना करेली।” गोलू झट से बोल उठा। जहूर मियां का सिर इतना झुका कि सीने से जा लगा।

“आइए, मैं आपको लेकर चलता हूं…” अमजद ने उन्हें सहारा दिया फिर महजबीं से बोले, “तब तक तुम इस कमरे की सफाई करवा चादर, तकिया, गिलाफ बदलवा दो।”

गोलू डरकर तेजी से कमरे से निकला और तीर की तरह अपनी मालकिन के पास जाकर बोला, “हमने मना किया था मगर वह दादा मियां को यहां ला रहे हैं।”

“यहां?” महलका की तेवरी पर बल पड़ गए।

“गोलू झाड़ू लाना।” महजबीं की आवाज सुन महलका चौंक पड़ी। वह पापा के साथ ससुर को देख ठिठकी। ससुर के कपड़े गंदे थे। लुंगी में बड़ा सा खोंचा लगा था। उसे तेज गुस्सा आया मगर किस पर, पापा पर या ससुर पर?

“पापा, आपने फोन कर दिया होता?” वह धीमे से बोली।

“फोन कर देता बेटी, तो यह सब देखने को मिलता?” उनका जवाब सुनकर वह अंदर से भन्‍नाई, मां की आवाज की तरफ बढ़ी और ससुर की कोठरी में घुसते ही मां पर बरस पड़ी।

“यह क्या मम्मी? बताना तो था या फिर…” उसका जुमला पूरा नहीं हो पाया और वह फटी आंखों से मां को देखने लगी जो ससुर के कमरे की चीजें सलीके से लगा रही थी।

“यह…यह क्‍या कर रही हैं आप?”

“वही, जो तुम्हें करना चाहिए था।”

“आप कहना क्या चाह रही हैं?”

“यही कि इस कमरे की सफाई कब से नहीं हुई?”

“मुझे क्‍या पता? झाड़ू मैंने दे रखी थी। मगर उन्हें तो सारे दिन बैठकर माजी में सैर करने की आदत है।”

“अपना कमरा तुम ख़ुद साफ करती हो?”

“मैं क्‍यों करूं, गोलू जो है। यह घर मेरा है, जैसे चाहूं रखूं। आपको… ”

“सही है।”

“अच्छा, अब आप यहां से चलिए। बदबू से नाक फटी जा रही है…चलकर बताइए जो आपने भेजा है उसका इस्तेमाल कैसे करना है।”

“पहले धुली चादर और तकिया-गिलाफ लेकर आओ।”

“ठीक है।” लगभग पैर पटखती सी महलका जाने को मुड़ी तभी दरवाजे की घंटी बजी। महलका चादर लाने की जगह दरवाजे की तरफ बढी, जहां राशिद खड़ा उसका इंतजार कर रहा था।

“तुम तैयार नहीं हुईं अभी तक?” खुले दरवाजे से आवाज उभरी।

“वह…मम्मी-पापा आए हैं। तुम जाओ, कल आना।” थोड़ा घबराए लहजे से महलका बोली।

“कौन आया है?” महजबीं ने गोलू से पूछा।

“उहै, जे अम्मां के रोज घुमाए ले जालेन।” गोलू ने कूड़ा उठाते हुए कहा।

“चादर मांगकर लाओ।” महजबीं ने कहा।

“अभी हम न जायब, काहे के उ डांट दीहें हमराके…उहां अभी खड़े बाल वाला मरदे आइल बा।” गोलू इतना कहकर चुप हो गया।

“लीजिए चादर।” महलका ने लगभग चादर फेंकते हुए कहा।

“यह तो फटी है जगह-जगह से?” महजबीं ने चादर खोली तो देखा।

“उनके लिए ठीक है।” उकताए लहजे में उसने कंधा उचकाकर कहा।

“जाओ, कोई मुनासिब सी चादर लाओ।” महजबीं का लहजा इस बार सख्त था जिसे सुनकर अचकचाकर बेटी ने मां को घूरा।

 

उधर अमजद और जहूर किसी बात पर कहकहे लगा रहे थे। महलका ने ताज्जुब से पापा को देखा, तब तक मैले कपड़े का गट्ठर उठा गोलू महजबीं के पीछे-पीछे आया।

महजबीं ने साबुन से मल-मलकर हाथ धोए। मुंह पर छींटे मारे। फिर बेटी से कहा, “अब अच्छी सी चाय पिलाना, सिर दुख रहा हैं।!

“अभी लाती हूं।” कुछ शर्मिंदा सी होकर महलका बोली।

“आप नहाएंगे?” अमजद ने पूछा और उनके खोंचा लगे तहमत और मलगिजे कुर्ते को देखा।

“जी…नहाना तो चाहता हूं मगर… ”

“कपड़ा फीचल नईखे।” गोलू फुसफुसाया।

“क्यों?”

“पिछले कअ दिन से बुढ़क बीमार रहलन, ए के खातिर कपड़ा न फीच पइलन।” गोलू ने सफाई दी। सुनकर अमजद ने ठंडी सांस ली और सोचा कि यह उस बाप का हाल है जिसका लड़का हर माह हजारों रुपया मेरी बेटी को भेजता है।

चाय तीनों ने पी ली तो महलका ने मां को कुछ याद दिलाया। महजबीं ने उसे अमल किए सामान लाने को कहा। जब वह ले आई तो वहीं आंगन में खड़े-खड़े उन्होंने बोतल का पानी और पुडिया का पाउडर जमीन पर पेड की जड में गिरा दिया।

“अब अमल की चीजों की नहीं आमाल ठीक करने का वक्त है।”

“यह क्या मम्मी?” महलका हैरत भरी आवाज से चीखी।

“बस, बहुत हो चुका। मैं तो होश में आ गई हूं, अब तुम भी सुधर जाओ।”

“मतलब? ”

“अभी ससुर के नहाने का इंतजाम करो फिर बाद में फुरसत से समझाऊंगी।” इतना कहकर महजबीं ने गुस्से भरी आंखों से बेटी को घूरा। उनके दिल में अफसोस था। शदीद अफसोस! उन्हें शिकायतें थीं ससुराल वालों से मगर ऐसी हरकतें उन्होंने कभी नहीं की थीं। बेटी ने बदतमीजी की हदें पार कर दी हैं।

“यह सब मेरी गलती है।” उन्होंने ठंडी सांस भरकर आसमान की तरफ देखा, “अल्लाह! तू मुझे माफ करना। इसकी सजा मेरी बच्ची को मत देना।”

मम्मी-पापा के जाने के बाद महलका पूरी तरह बौखला सी गई थी। सिर में भी शदीद दर्द हो रहा था। इस बीच तीनों बच्चे पिट चुके थे। अब बिस्तर पर औंधे पड़े सुबक रहे थे।

“का पता आज का होकी?” गोलू ने बुजुर्ग की तरह गर्दन हिलाकर जैसे अपने से कहा हो फिर दाल धोकर गैस पर रखी। प्रेशर कूकर सूं-सूं करने लगा था।

उसका दिमाग भी सनसना रहा था।

उधर कमरे में लेटी महलका मियां को मिस कॉल पर मिस कॉल मार रही थी मगर वहां से कोई जवाब नहीं मिल रहा था। तंग आकर एस. एम. एस. करके वह आंखें बंद करके लेट गई। जाने कब उसकी आंख लग गई।

उधर जहूर परेशान थे यह सोच-सोचकर कि महलका के मां-बाप को मेरी सुध क्योंकर आई? कहीं इसमें उनकी कोई चाल तो नहीं है? महलका बीबी जैसी ताना मारने वाली, नाक पर मक्खी न बैठने देने वाली आज मेरे कमरे की सफाई कर गई, या इलाही यह माजरा क्या है?

‘यह ख़्वाब है या हकीकत? बहुत दिनों बाद नहाए थे। बदन पर साफ़ कमीज और धोती थी। धुली चादर बिछी थी। मोंगरे की खुशबू वाली अगरबत्ती धीरे-धीरे अपनी महक पूरे कमरे में फैला रही थी। उनके पपोटे भारी हो रहे थे। उनकी आंखें मुंदने लगीं और वह गहरी नींद में डूब गए।

दिमाग ने ख़्वाब बुनना शुरू कर दिया।

उनका सामान कमरे से बाहर फेंक दिया गया है। उनकी कनपटी पर महजबीं बेगम ने पिस्तौल तान रखी है और अमजद कह रहे है, “बडे मियां, जल्दी से कागजात पर दस्तख़्त करो वरना…”

‘वह घबराहट में इनकार करते हैं तो दो हट्टे-कट्टे मर्द आगे बढ़ते हैं। इससे पहले कि उनके हाथ उनकी गर्दन पर पहुंचते, उन्होंने कागज पर दस्तख्त कर दिए।

तभी कहीं से जाकिर आता है और माथा पीटकर कहता है, ‘अब्बा! आपने यह क्या कर डाला? मकान उसके नाम लिख दिया और वह तो मकान बेच राशिद के साथ भाग गई है। अब यह तीन बिना मां के बच्चों को मैं कैसे पालूंगा? अरे अब्बा! आपने यह क्‍या कर डाला है?” जाकिर सीना पीट दहाड़ें मार रो पड़ा। “आपने यह क्‍या कर डाला अब्बा, कुछ तो सोचा होता?”

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