हिंदी व्यंग्य की धाार्मिक पुस्तक: हरिशंकर परसाई


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इंस्पेक्टर मातादीन चहुंओर समाया : नरेन्द्र कोहली

परसाई जी की रचनाएं मैंने ‘धर्मयुग’ में अपने उस वय में पढ़नी आरंभ की थी, जब न तो साहित्य की उतनी समझ थी और न ही जीवन का अनुभव। मैं स्वभाव से पाठक था, इसलिए पढ़ता था। जिस रचना में रस मिलता था, उसे पढ़ जाता था। पढ़ते-पढ़ते लगा कि यह लेखक जो कुछ लिख रहा है, वह मैं भी लिखना चाहता हूं, क्योंकि वह समाज का सत्य है। समाज को मैं बहुत ज्यादा नहीं जानता था, फिर भी लगता था कि यह लेखक कृत्रिम सुहानेपन को हटाकर कुरूप यथार्थ को प्रस्तुत कर रहा है। यह मेरे स्वभाव के अनुकूल है। यह भी समझ में आ रहा था कि लोगों को झूठ पसंद नहीं है, किंतु न तो वे सच बोलते हैं और न सच बोलने की अनुमति देते हैं।
क्रमशः जीवन का अनुभव बढ़ा।
मैं तब कॉलेज में पढ़ा रहा था जब हमारे सहयोगी मल्होत्रा के साथ एक घटना घटी। वे अपने एक मित्र के साथ मोटरसाइकिल पर जा रहे थे। मोटरसाइकिल वे स्वयं ही चला रहे थे। सहसा कुछ ऐसा हो गया कि मोटरसाइकिल सड़क-मध्य की पटरी से जा टकराई। वे गिरे और अचेत हो गए। होश में आए तो अस्पताल के बिस्तर पर थे। पुलिस वाले उनका बयान लेने के लिए मुस्तैद ही नहीं खड़े थे, छटपटा भी रहे थे। मल्होत्रा ने सीधे शब्दों में बता दिया कि क्या हुआ था। पुलिस वाले ने कहा, ‘आप डरें नहीं। हमने उन दोनों को बांध रखा है, जिन्होंने आपको मारकर बेहोश कर दिया था।’
वे चकित रह गए, ‘किंतु मैं तो स्वयं मोटरसाइकिल चला रहा था।’
‘कोई बात नहीं। आप उन्हेें देख लें। और डरें नहीं। कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।’ उनके सामने हथकड़ी में बंधा उनका मित्र और एक अपरिचित व्यक्ति खड़ा था। मित्र ने रोते हुए बताया, ‘तू बेहोश हो गया था यार। तुझे अस्पताल ले जाने के लिए न कोई टैक्सी वाला तैयार हुआ, न स्कूटर वाला। आता-जाता तो कोई रुका ही नहीं। अंत में इस भले आदमी ने अपना स्कूटर रोका और तुझ लहूलुहान को इसकी सहायता से उठाकर मैं यहां लाया। मुझे तो तेरे पास रुकना ही था, पर पुलिस वालों ने तेरे घर फोन तक करने के लिए मुझे बाहर नहीं जाने दिया। कहते हैं, मैं भाग जाऊंगा। और इस भले आदमी को भी तब से अब तक बांधकर रखा है।’
‘मेरी तो सारी दिहाड़ी ही तबाह हो गई साहब!’
तब मैंने इंस्पेक्टर मातादीन का चेहरा पहली बार देखा था।
उसके बाद एक बार हमारे कॉलेज के लड़कों में छुरेबाजी हो गई थी। बीच-बचाव के चक्कर में मेरे कपड़ों पर भी खून लग गया था। गवाही मुझे देनी ही थी। ‘मेडिको लीगल’ केस था। मुझे पुलिस वालों का भी भय था और उन चाकूबाज लड़कों का भी, जिन्होंने यह कांड किया था। मैं तीन दिनों तक कांपता रहा कि जाने कब पुलिस वाले आ जाएंगे किंतु कोई नहीं आया।
बाद में उन लड़कों में से ही एक ने बताया, ‘कोई नहीं आएगा सर!’
‘क्यों?’
‘वारदात से पहले ही थाने में पैसे पहुंचा दिए थे।’
तब मैंने इंस्पेक्टर मातादीन का चेहरा दूसरी बार देखा।
समाचार-पत्र में पढ़ा कि मेरठ के पास डाकुओं ने एक बस रोकी और यात्रियों को लूट लिया। उन्होंने लूट के पैसे गिने। सात हजार कुछ रुपए थे। उन्होंने वे पैसे यात्रियों को लौटा दिए। किसी ने दुस्साहस कर पूछ ही लिया, ‘भले आदमी लूटकर कभी कोई पैसे लौटाता भी है?’
डाकुओं के सरदार ने उत्तर दिया, ‘एक बस लूटने के थाने में दस हजार देते हैं। सात हजार में बस कैसे लूट लें?’
तब मैंने तीसरी बार इंस्पेक्टर मातादीन का चेहरा देखा था। और अब तो प्रतिदिन वही देखते रहते हैं। प्रतिदिन समाचार-पत्र पढ़कर परसाई जी के ये वाक्य स्मरण हो आते हैं-
‘कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह कत्ल के मामले में फंसा दिया जाएगा। —बेटा बीमार पिता की सेवा नहीं करता। वह डरता है कि बाप मर गया तो कहीं उस पर हत्या का आरोप न लगा दिया जाए। —घर जलते रहते हैं और कोई उसे बुझाने नहीं जाता-डरता है कि कहीं उस पर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाए। —बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता। इस डर से कि कहीं उस पर बच्चों को डुबोने का आरोप न लग जाए। —सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं। मातादीन जी ने हमारी आधी संस्कृति नष्ट कर दी है। अगर वे यहां रहे तो पूरी संस्कृति नष्ट कर देंगे। उन्हें फौरन रामराज में बुला लिया जाए।’
आजकल हमारे यहां भी हत्याएं होती हैं और कोई हत्यारा नहीं होता। बलात्कार होते हैं और बलात्कारी नहीं होता, केवल पीड़ित युवती अथवा बच्ची का शव होता है। आतंकी घटनाएं होती हैं और किसी को फांसी नहीं होती। काला बाजार, उत्कोच और भ्रष्टाचार की घटनाएं होती हैं। सरकार तो क्या प्रधानमंत्री तक को उसका पता होता है, किंतु वे कहते हैं कि वे इतने भले आदमी हैं कि कोई उनकी बात नहीं मानता। शहीदों को देशद्रोही और देशद्रोहियों को देश का नायक बनाने का अति उन्नत कोर्स और प्रशिक्षण इंस्पेक्टर मातादीन प्राप्त कर चुके हैं।

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