हक़ीक़त चाहे जो भी हो, शाइर और अदीब आज भी इस ख़ुशफ़हमी में मुबतिला हैं कि वो अपनी रचनात्मकता के द्वारा इस दुनिया को बदसूरत होने से बचा सकते हैं और समाज में पाई जाने वाली असमानताओं को दूर कर सकते हैं। उबैद सिद्दीक़ी की शाइरी का एक बड़ा हिस्सा इसी ख़ुशफ़हमी का नतीजा मालूम होता है:
जाने किस दर्द से तकलीफ़ में हैं
रात दिन शोर मचाने वाले
ये सब हादसे तो यहां आम हैं
ज़माने को सर पर उठाता है क्या
आधुनिकता के जोश में हमारी शाइरी, ख़ास तौर पर ग़ज़ल ने समाजी सरोकारों से जो दूरी बना ली थी उबैद ने अपनी ग़ज़लों में इस रिश्ते को दोबारा बहाल करने का एक सराहनीय प्रयास किया है:
धूल में रंगे-शफ़क़ तक खो गया है
आस्मां तू कितना मैला हो गया है
बहुत मकरूह लगती है ये दुनिया
अगर नज़दीक जाकर देखते हैं
सदाए-गिर्या जिसे एक मैं ही सुनता हूं
हुजूमे-शहर तेरे दरम्यां से आती है
अपने विषयवस्तु और कथ्य से इतर उबैद की शाइरी अपनी मर्दाना शैली और अन्याय के खि़लाफ़ आत्मविश्वास से परिपूर्ण प्रतिरोध की भी एक उम्दा मिसाल है:
शिकायत से अंधेरा कम न होगा
ये सोचो रौशनी बीमार क्यों है
मैं फ़र्दे-जुर्म तेरी तैयार कर रहा हूं
ए आस्मान सुन ले हुशयार कर रहा हूं
इस संग्रह के प्रकाशन से मैं बहुत ख़ुश हूं और उम्मीद करता हूं कि उबैद की शाइरी के रसास्वादन के बाद आप ख़ुद को भी इस ख़ुशी में मेरा शरीक पाएंगे।
दशहरयार