मनाली में गंगा उर्फ़ रोजनामचा
चैंकिए नहीं (मनाली में गंगा) क्योंकि मनाली में तो व्यास है फिर यह गंगा यहां कैसे? पर यह गंगा नदी नहीं, जीती-जागती हाड़-मांस की गंगा है जो सब कुछ चुपचाप सहते हुए भी किसी से कोई शिकायत नहीं करती। अपने पति और बच्चों के लिए बड़े से बड़ा जोखिम भी उठाती है। पति का प्यार और अनुकंपा पाने के लिए, उसकी वासनापूर्ति के लिए अपने आप को समर्पित करने के लिए हमेशा प्रस्तुत रहती है। उसकी व्यथा, वेदना, दर्द, पीड़ा को कोई नहीं समझता। हंसते-हंसते सब झेलती है और उफ भी नहीं करती।
गंगा अध्यापन करती है। और उन दिनों जब घरों में गैस नहीं बल्कि पत्थरी कोयलों से अंगीठी सुलगानी पड़ती थी, कपड़े धोने के लिए भी वाशिंग मशीन नहीं थी, फ्रिज भी आम प्रचलन में नहीं थे क्योंकि फ्रिज के लिए पांच-छह माह का इंतजार करना पड़ता था। टेलीफोन के लिए तो प्रायः दस वर्षों तक का लंबा इंतजार करना पड़ता था। उस समय भी वह प्रातः पांच बजे उठकर सबका नाश्ता बनाकर बच्चों का व पति का टिफिन तैयार करती थी। कपडे़ भी सुबह-सवेरे धोकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करके साढ़े छह बजे घर से निकलती थी। पर बदले में उसे क्या मिलता था-पति की उपेक्षा और ताने। इसके बावजूद वह बहुत ही हंसमुख और जिंदादिल थी। उसी गंगा की एक झलक इस डायरी में है।
-द्रोणवीर कोहली