Description
…डायरी इतनी अंतरंग होती है कि आप खुद जैसे अपनी आत्मा से बात कर रहे हों। तो इसे छपने के लिए क्यों दे देते हैं। आखिर क्या बात है कि हमें जरूरी लगता है कि यह छपना चाहिए। …रमेशचन्द्र शाह जी की डायरी के कुछ अंश पढ़ लेने के बाद मुझे लगा कि जो मैं आगे लिखने वाला था, वह अब नहीं लिखूँगा। कारण, कि इतना अंतरंग है यह। सुनिए 5 मार्च, 1982 की डायरी का एक अंश:
आड़ू के फूलों की गंध…, नीबू की पत्तियों की गंध,…कालिका मंदिर के पिछवाड़े नारंगी की गंध, लकड़ियों के पूले बाँधते हुए, चिरे हुए रामबाँस की गंध,…किलेखाई के निंगाले की गंध,…हनुमान मंदिर में साधुओं के चिलम की गंध,…चमेली और चरणामृत की गंध,…बाबू की जेब से तंबाकूमिले प्रसाद की गंध,…जाने कितनी और तरह-तरह की गंध…
मुझे लगता है कि हमारी पूरी जिंदगी और आसपास की जिंदगी की सारी जितनी महकें हो सकती हैं,…उन महकों को…डायरी की अंतरंगता के साथ जब वे आती हैं तो मुझे लगता है कि जैसे हमारा अपना भारत, हमारी अपनी धरती, हमारा अपना घर, हमारा अपना खेत, हमारा अपना मंदिर और हमारे अपने फल एकाएक महकने लगते हैं। कुल दस पंक्तियाँ इतनी गहरी बात कह जाती हैं कि लगता है कि समूची पूरी पहचान ये छोटी-छोटी सी पंक्तियाँ ही दे देती हैं। …डायरी कभी-कभी वह बात कह जाती है जो बात और कोई नहीं सह सकता। लेकिन डायरी का कागज कहीं न कहीं वह बात सह लेता है और सहने के साथ-साथ आपको बर्दाश्त करने का धीरज भी दे देता है। मुझे लगता है कि यह भी डायरी का एक बहुत बड़ा सार्थक पक्ष है।
–कमलेश्वर (समकालीन साहित्य समाचार, जनवरी, 2007)
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