Description
“आचार्य’ नई पीढ़ी को प्रतिभाशाली रचनाकार इंदिरा दांगी द्वारा लिखा गया पहला नाटक है। इंदिरा ने कहानियों और उपन्यासों से पाठकों व आलोचकों को समान रूप से प्रभावित किया है। कथा लेखन के साथ अब उन्होंने नाट्य लेखन की चुनौती स्वीकार की है। ‘ आचार्य ‘ उनका प्रथम पूर्णकालिक नाटक है, जो हिंदी में मौलिक नाटकों के अभाव पर छिड़ी बहस के बीच प्रकाशित हो रहा है।
यह नाटक साहित्यिक गतिविधियों, संपादकीय महत्त्वाकांक्षाओं और दीगर प्रपंचों को केंद्र में रखकर आकार प्राप्त करता है। समकालीन साहित्यिक पत्रकारिता को पछोरती यह रचना उन तत्त्वों को बिलगाने का उपक्रम है जो विसंगतियों और विडंबनाओं का निर्माण करते हैं। इसके चरित्रों पर वास्तविकता की दिलचस्प छायाएँ हैं। नाटक यथार्थ को इस तरह परिभाषित करता है कि एक बृहत्तर निहितार्थ भी व्यक्त होता है। इसकी प्रमुख पात्र रोशनी के शब्दों में, ‘…अपनी-अपनी खुशफहमियों की व्यर्थता हरेक की आत्मा जानती ही है। फिर क्यों? क्यों हम जीते हैं इन व्यर्थताओं में? क्यों जेवरों की तरह लादे रहते हैं आडंबरों को? क्यों नहीं मुक्त कर देते अपने आप को अपने आप से ही? क्यों नहीं हम खुद को जीने देते वैसे, जेसा हम सच में जीना चाहते हैं।’
पठनीयता और रंगमंचीयता दोनों तत्त्वों से संपन्न “आचार्य” ‘समकालीनता की समीक्षा’ है। ‘खंड-खंड पाखंड पर्व” का उद्घाटन है। रंगकर्मियों को यह बेहद रुचेगा। रचनात्मक भाषा, अर्थसमृद्ध संवाद, विट व हयूमर का बेहतरीन प्रयोग आदि विशेषताओं के चलते इस नाटक को प्रसिद्धि मिलेगी ऐसा भरोसा है। इंदिरा दांगी की रचनाशीलता का यह नाट्य आयाम स्वागत योग्य है।