जनमनमयी सुभद्राकुमारी चौहान
बैंजामिन फ्रैंकलिन ने एक जगह लिखा है- ‘यदि जाप चाहते हैं कि मरने के बाद दुनिया आपको जल्दी भुला न दे, तो कुछ ऐसा लिखें जो पढ़ने योग्य हो या कुछ ऐसा करें जो लिखने योग्य हो ।’
सुभद्रा जी का व्यक्तित्व और कृतित्व फ्रैंकलिन की इस उक्ति पर एकदम खरा उतरता है । उन्होंने ऐसा लिखा जो हमेशा पढ़ने योग्य है और ऐसा किया जो हमेशा लिखने योग्य है ।
सुभद्राकुमारी चौहान ने जो रचा वही किया और जो जिया वही रचा । वे हिंदी ही नहीं, अपितु बीसवीं शताब्दी के भारतीय साहित्य की सर्वाधिक यशस्वी कवयित्रियों में गिनी जाती हैं । सुभद्राकुमारी की भाषा की सादगी तो आज के कवियों तथा समीक्षकों के लिए एक चुनौती बनी हुई है । वे प्राचीन भारतीय ललनाओं के शौर्य की याद दिलाने वाली कर्मठ महिला थीं और उनकी अनेक कविताएं भारतीय स्यतंत्रता संघर्ष के दौरान लाखों देशवासियों के होंठों पर थीं और अब भी है । आश्चर्य नहीं कि हिंदी के महानतम कवि निराला, दिनकर तथा मुक्तिबोध भी सुभद्रा की कविता के प्रशंसक थे ।
मैं सामाजिक कार्यकत्री, देशसेविका, कवि, लेखिका तो जो थीं सो थीं ही, सबसे बड़ी तो उनकी मनुष्यता बी । उनका सहज-स्नेहमय उदार हृदय था, जिसने अपने-पराए सबको आत्मीय बना लिया था ।
हिंदी प्रदेशों के नवजागरण और सुधार-युग को सुभद्राकुमारी चौहान ने अपने रचनाकर्म से जन-जन तक पहुंचाने का काम निर्भयता से किया है ।