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इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-2)इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-2)

हिंदुत्व के रखवाले

“कल मैं अपनी बात पूरी नहीं कर पाया क्योंकि तुम कुछ थके से लग रहे थे।’

‘थका नहीं था, यह जो धर्म-वर्म का चक्कर है इसमें एक बार घुस जाओ तो निकलने का रास्ता ही नहीं मिलता है, इसलिए हम लोग इससे बचते हैं। तुम तो लगता है उसी दुनिया के लिए बने हो, वहाँ तुम्हें इतना सुकून मिलता है कि बाहर आना ही नहीं चाहते।’ 

“तुम इससे बचते नहीं हो, बच सकते ही नहीं, तुम इसे दुम की ओर से पकड़कर पीछे खींचना चाहते हो, वह पलटकर तुम्हें खा जाता है और तुम्हारा चेहरा मुस्लिम लीग के चेहरे में बदल जाता है, जिसे तुम लाल झंडे से छिपाना चाहते हो। जानते हो मैं क्‍यों सेक्युलरिज्म का झंडा और सेमेटिज्म का डंडा उठाकर चलने वालों को भग्नचेत यानी शिजोफेनिक मानता हूँ? इसलिए कि/तुम हाहाकार मचाते हो हिंदू मूल्यों को बचाने का, साथ देते हो उन मूल्यों को नष्ट करने वालों का। बात करते हो समावेशिता का, बहुलता का और साथ देते हो बहुलता और समावेशिता को नष्ट करने वालों का। बात करते हो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की और वह स्वतंत्रता तुमने कभी किसी को दी ही नहीं और आज भी स्वतंत्र विचारों को नहीं सुनते, सुनते प्रियं अनिष्टकरं को हो। तुम्हें किसी ने हाशिए पर नहीं लगाया, स्मृतिभ्रंश और तज्जन्य बुद्धिनाश के शिकार हो गए-‘स्मृति भ्रंशात्‌ बुद्धिनाश: बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति।’ कई बार सोचना पड़ता है कि क्या गीता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को आगाह करने के लिए त्रिकालदर्शी प्रज्ञा से लिखी गई थी, और दुःख होता है यह सोचकर कि हमारे पितरों ने जो पाठ अपने वंशजों के लिए लिखा था उसको समझने की योग्यता तक तुम अर्जित न कर सके।’

“गजब का स्टैमिना है, बेवकूफी की बातें भी इतने आत्मविश्वास से करते हो कि अनाड़ी आदमी हो तो उसे ही सही मान ले। अरे भई, पढ़ने को बहुत कुछ है दुनिया में, चुनाव करना पड़ता है, कौन सा ज्ञान कब का है और उसे पढ़कर हम इतिहास के किस मुकाम पर ठहरे रह जाएँगे। हम नए ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक सूचनाओं से लैस होने का प्रयत्न करते हैं कि अपने समय के साथ चल सकें, तुम दो हजार, चार हजार वर्ष पीछे की चीजें पढ़ते हो और वहीं ठिठके रह जाते हो, आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। अतीत के अंधविवर में कितने सुकून से रह लेते हो, यह सोचकर दया आती है। तुम जिसे अनमोल समझकर गले लटकाए फिरंते हो वह गले में बँधा पत्थर है। डूबने वालों के काम आता है। हम तुम्हें बचाने के लिए कहते हैं, “हटाओ इसे ‘, तुम सुनते हो ‘मिटाओ इसे ‘। हल्यूसिनेशन के शिकार तो तुम हो।’

दाद दिए बिना न रहा गया, पर याद दिलाना पड़ा कि “जानना जीना नहीं है, निर्मूल होकर हवा में उड़ते फिरोगे, और इस भ्रम में भी रहोगे कि खासी ऊँचाई पर पहुँच गए हो, पर हवा के तनिक से मोड़ या ठहराव के साथ जमीन पर कूड़े की तरह बिखर जाआगे। मूलोच्छिन्न उधिया सकता है, तनकर खड़ा नहीं हो सकता।’

“जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, वह अमल में आ जाए तो जानते हो भारत का क्या हाल होगा। वह हिंदू पाकिस्तान बन जाएगा। भारत का नाम नक्शे पर रहेगा, पर भारत पाकिस्तान की दर्पणछाया बन जाएगा, देखने में उलटा, परंतु सर्वांग सदृश। तुम नाम से हिंदू हो, हम आत्मा से, इसलिए उन मूल्यों के लिए तुम खतरा बन रहे हो और हम उन्हें तुमसे बचाने पर लगे हुए हैं। हम हिंदुत्व का विरोध नहीं करते, हिंदू समाज के सैफ्रनाइजेशन का, भगवाकरण का विरोध करते हैं। हम हिंदुत्व की रक्षा करना चाहते हैं, तुम उसे मिटा रहे हो। समझे?’

“यह बताओ, तुम्हारी जमात में कोई ऐसा आदमी मिल सकता है जो होश-हवास में हो? ऐसा जो उन शब्दों का मतलब जानता हो जिनका वह धडल्ले से प्रयोग करता है? सैफ्रन-सैफ्रन चिल्लाते रहते हो, फिर भगवा-भगवा चिल्लाने लगते हो, इनका अर्थ जानते हो? सैफ्रन का अर्थ जानते हो?!

‘जानूँगा क्यों नहीं। सैफ्रन, जाफरान, केसर।’

यह जानते हो कि सैफ्रन अरबी जाफरान का बदला हुआ रूप है?

यह वह नहीं जानता था, फिर मैंने पूछा, ‘जाफरान अरब की जलवायु में नहीं उग सकता यह भी जानते होगे?’

वह तुरत मान गया। फिर मैंने समझाया कि “उच्चारण, श्रवण और संचार में इतने टेढ़े-मेढ़े रास्ते हैं जिन सबका पता आधुनिक भाषाविज्ञान को भी नहीं है, और यदि उस नियम का पता हो भी जिसमें केसर जाफरान बन सकता है तो मुझे अपनी सीमाओं के कारण, उसका ज्ञान नहीं, परंतु यह पता है कि शब्द वस्तु के साथ जाता है और नई स्थितियों के अनुसार ढल भी जाता है, और इसलिए यह कश्मीर के उत्पाद अथवा संस्कृत में इसके लिए प्रयुक्त शब्द केसर का प्रसार है और अरब तक सीधे जुड़े भारतीय व्यापारतंत्र के प्रताप का इस शब्द के माध्यम से एक नक्शा तक तैयार किया जा सकता है।’

“तुमसे इसके उत्तर की आशा भी नहीं थी, फिर भी जब तुम भगवाकरण कहते हो तो इसका पता होना चाहिए कि इसका अर्थ कया है, जानते हो?!

वह चक्कर खा गया। समझाना पड़ा, ‘भग-भर्ग का अर्थ है अग्नि, सूर्य, प्रकाश। इसका एक अर्थ भाग भी था, पर इसका स्रोत भिन्‍न है। इसके इतिहास में जाना न चाहेंगे क्योंकि तब बात फिर अधूरी रह जाएगी, इसलिए विश्वास करो ये सभी अर्थ थे और इनका पल्‍लवन भी हुआ, और इससे भक्त और भजन तक पैदा हो गए, परंतु यहाँ यह समझो कि भगवा का अर्थ था सूर्यवर्ण। इसके लिए जिस रंग को सबसे अनुरूप माना गया था, वह था केसर को उबालकर उससे पैदा होने वाला रंग और इस तरह केसरिया, शौर्य, गरिमा और गौरव का द्योतक बन गया। अब यह बताओ, गैरिक का अर्थ जानते हो क्या?!

वह नहीं जानता था। बताना पड़ा, ‘गैरिक का अर्थ है गेरू का वर्ण। जानते हो हरित वर्ण या हल्दी के रंग का इससे क्या संबंध है?’

वह यह भी नहीं जानता था, बताना पड़ा कि “* दसियों हजार साल पहले से एक बहुत बड़े भूभाग में कृमिनाशक के रूप में हल्दी और गेरू के रंग का प्रयोग होता आया है। हरित वर्ण या हल्दी का रंग और केसर वर्ण दोनों में निकटता है इसलिए केसरिया वास्तव में हल्दिया या हल्दी के रंग में रँगा हुआ वस्त्र हुआ।

* अब समझो, एक का संबंध शौर्य से हे और दूसरे का रोगाणु निवारण से। दोनों के अर्थभ्रम और वर्णपभ्रम से गेरू के रंग का या गैरिक (इनके साथ रामरज मिट्टी के रंग को दीवार आदि की रँँगाई आदि के संदर्भ में याद किया जा सकता है।) गेरू कृमिनाशक के रूप में प्रयोग में आता था। वस्त्र को कृमि निवारक बनाने के लिए गेरू या हल्दी में रँगा जाता था। गेरू में रँगा गैरिक या हल्दी में रँगा हरित इसके कारण एक-दूसरे के पर्याय बन गए। रोगनिवारण का विस्तार अमरता में हुआ और इनका अर्थ सूर्यवर्ण और अमरता का एक रूप हुआ सूर्यलोक या स्वर्ग में प्रवेश का अवसर। यह केसरिया बाने में प्रतिफलित हुआ। जब तुम सैफ्रनाइजेशन का उपहास करते हो तो कया जानते हो, तुम उन असंख्य बलिदानों का उपहास कर रहे हो। तुम जैसा सोचते हो उससे तो तुम भगत सिंह को भी मूर्ख कह सकते हो कि अपनी जान बचा सकता था फिर भी जान-बूझकर मृत्यु का वरण किया, और मौका मिलते ही भगत सिंह जिंदाबाद के नारे भी लगा सकते हो। अब नए सिरे से सोचो, पाओगे सैफ्रन का अर्थ है गौरव। शौर्य का वर्ण, त्याग का वर्ण, महिमा का वर्ण, सूर्यवर्ण, शूरों का वर्ण, अमरता का वर्ण, सुवर्ण या सुनहला रंग और जब तुम इसका उपहास करते हो तो इन सबका उपहास करते हो।

* जानते हो, एक समय था जब यह रंग भारत से लेकर यूरोप तक गौरव, महिमा, त्याग, बलिदान और शौर्य का रंग माना जाता था। तुम जानते हो अवेस्ता का रचनाकार कौन है? ‘

“जरदुस्त्र कहते हैं शायद।’

“जरंदुस्त्र नहीं, जरदवस्त्र या सुनहले या गैरिक या केसर वर्ण का वस्त्र पहनने वाला। तुमको पता है, रोम के लोग राजा के वस्त्र या लबादे को क्या कहते थे? स्वर्णिम वस्त्र या केसरिया वस्त्र, पर्पल रोब। यार, तुम होश में आओ, होश में सोचना-समझना और जो कुछ बकते हो उसके परिणामों को समझना शुरू कर दो तो तुमसे अच्छा कौन है? दिल जिगर लो जान लो। हम भी चाहते हैं तुम्हें तुम्हारी तूफाने-बदतमीजी और दौरे-बदहवासी से तुम्हें बाहर लाना।!

11-01-2016

इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-1)इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-1)

इतिहासपुरुष

‘तानाशाही के खतरे वाली जो बात तुम कर रहे थे वह तो सचमुच संभव लगती है। इस आदमी में तानाशाही प्रवृत्ति कूट-कूटकर भरी है। उसका चेहरा नहीं देखते। बोलता है तो लगता है बुलडॉग भौंक रहा है, पंजे मारता हुआ।’
मैंने कुछ खिन्न स्वर में कहा, ‘तुम्हें तुम्हारी पार्टी ने संस्कार में यही दिया? इससे आगे बढ़ने का मंत्र तक नहीं सिखाया।’
उसका चेहरा देखने लायक था।
मैं उस पर सवार हो गया, ‘देखो, तुम किसी व्यक्ति का अपमान नहीं कर रहे हो। अपने देश के प्रधानमंत्री का अपमान कर रहे हो। उस जनता का अपमान कर रहे हो जिसने उसे सिर-माथे चढ़ा लिया। और अपना भी अपमान कर रहे हो, क्योंकि तुम उसे देश के नागरिक हो जिसका प्रधानमंत्री वैसा है, जैसा तुमने बनाना और दिखाना चाहा।’
‘गलती हो गई भाई। माफ भी करो।’
‘गलती नहीं हुई है, यह तुम्हारी आदत का हिस्सा बन गया है, वरना यह बात तुम्हें कल ही समझ में आ गई होती, और इस गलती की नौबत न आती। बुरा मत मानना, साम्यवाद की लोरी सुनाते-सुनाते तुम्हें ऐसा घोल पिलाया जाता रहा कि तुम आदमी से भेड़िये में तबदील हो गए। तुम्हें अविजेय बनाने के लिए असरदार नारेबाजी और हंगामेबाजी की आदम डाली जाती रही। तुम्हारा सबसे प्रबुद्ध वर्ग तो मजदूर वर्ग है। सर्वहारा। उसकी भाषा तुम्हारे सुशिक्षित, प्रतिबद्ध वर्ग की आदर्श भाषा बन गई। वह समादृत संबंधों के स्वजनों-परिजनों के अंग-उपांग का नाम लेकर प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े शब्दों का प्रयोग गाली के रूप में अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए करता है, तुमने गालियों का स्तर थोड़ा ऊपर कर दिया। तुमको किसी ने बताया नहीं कि यह फासिस्टों और नाजियों की भाषा है और इसी धज में तुम्हें लंबी जबान और छोटे दिमाग के साथ फासिज्म से लड़ने को खड़ा कर दिया गया, जबकि तुम्हें यह बताया तक नहीं गया कि फासिज्म है क्या बला, किन परिस्थितियों में पैदा होता है, वह अपने भीतर से ही कितना खोखला होता है। बताया सिर्फ यह गया कि अन्य गालियों की तरह फासिज्म भी एक गाली है। जिसकी जबान बंद करनी हो उसे फासिस्ट कह दो और डंका बजाओ। अब तुम्हें आत्मोद्धार के लिए, अपने भेड़िये से लंबी जंग लड़नी होगी दुबारा आदमी बनने के लिए।’
वह ‘अब फूटा-तब फूटा’ की स्थिति में था। मैं आवेश में बोल तो गया पर ग्लानि मुझे भी थी। दोष उसका तो न था। एक जमाने में मैं यह भाषा भले न बोलता था, पर मुझे यह बुरी कतई नहीं लगती थी। ‘आधा गाँव’ के कुछ चरित्रों की भाषा आज भी गलत नहीं लगती। प्रश्न औचित्य का है। कुछ देर तक हम चुप बैठे रहे। जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो बात उसे ही शुरू करनी पड़ी, ‘मैंने कुछ सख्त बात कह दी, उसका खेद है, लेकिन यह तो मनोगे ही कि उसमें तानाशाही प्रवृत्ति है?’
‘भले मानस, खेद हुआ और जबाने संभाली तो कम से कम ‘उनमें’ तो कहा होता। चलो माफ किया। एक दिन में हुआ भी तो कितना सुधार होगा।
‘रही बात तानाशाही प्रवृत्ति की तो यह प्रवृत्ति तो मुझमें भी है। तुम मेरे लिखने-पढ़ने के कमरे को देखो तो बस केआस नजर आएगा। चीजें बिखरी हुई हैं। जो अपनी किताबें और कागज संभाल नहीं पाता वह भी सोचता है कि अगर मौका मिले तो मैं दुनिया को इस तरह चलाऊं। तानाशाह होना सभी चाहते हैं। कम से कम वे जो अपने घर परिवार को किसी आदर्श संस्था के रूप में चलाना चाहते हैं, छोटे-मोटे तानाशाह ही बने रहते हैं। तानाशाही इतनी बुरी चीज नहीं है। हां, दुरुस्त भी नहीं है। तानाशाह तो गांधी जी भी बनना चाहते थे और सच कहो तो जब तक उनकी चली तानाशाह ही बने रहे। नेहरू ने तो अपनी तानाशाही आकांक्षाओं के बारे में एक लेख, मॉडर्न रिव्यू में चाणक्य के नाम से लिखा था। बाद में किसी ने पूछा, क्या अब भी आप में वह प्रवृत्ति है, तो कहा, ‘मैंने पहले ही इसे भांप लिया था इसलिए बच गया।’ बचे वह भी नहीं, पर कोशिश करते रहे। नेहरू में जितना अंतर्विरोध मिलेगा उतना दूसरे किसी नेता में नहीं। वह अपने से लड़ते भी थे, अपने को छिपाते भी थे और अपनी जिद पर आ जाने पर जानते हुए कि यह शायद ठीक नहीं है वही करते थे। वह तानाशाही प्रवृत्ति उनमें दबी रही, इन्दिरा जी में उभर आई, पर इस प्रवृत्ति से लड़ने की कोशिश वह भी करती थीं, केवल कभी-कभी। संजय में यह जबरदस्त थी। मूर्खता की हद तक। मेनका में भी उतनी ही प्रबल है। जो लोग निर्माण करना चाहते हैं, वे जो कुछ जिस तरह बनाना चाहते हैं, उसमें बाधा न पड़े, सभी एक लय में, तालमेल से काम करें, उस सपने को साकार करने को जो महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति को तानाशाह बनाता है। फिल्म का डायरेक्टर, टीम का कप्तान, ऑर्केस्ट्रा का संचालक, सेना का नायक सभी तानाशाह ही होते हैं। तानाशाही प्रवृत्ति का मूल यही है। और तुमको तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए। तुम लोग तो स्वयं तानाशाही के पक्षधर हो। !

“अरे भई, वह तानाशाही किसी व्यक्ति की नहीं होती।’

मैं हँसने लगा तो वह सकपका गया।

“पहले इस कटु सत्य को समझो कि मोदी एक विषेष ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है। इतिहासपुरुष है। उसे भारतीय जन समाज ने 2013 में तानाशाह के रूप में… !

*2013 में नहीं, 2014 में और तानाशाह के रूप में नहीं, भावी प्रधानमंत्री के रूप में। तानाशाह वह खुद बनना चाहता है। जब तुम इतनी मामूली बातें भी नहीं समझ पाते तो… ‘

मैंने उसे वाक्य पूरा करने ही नहीं दिया, ‘2014 में निर्वाचन हुआ और जनता पार्टी जीती। जनता ने तो 2013 में ही उपलब्ध तानाशाहों में से किसी एक को चुनना आरंभ कर दिया था-आडवानी को इतने नंबर, राहुल को इतने, सोनिया को इतने, नीतीश को इतने और मोदी को इ-त-ने। एक बार नहीं, बार-बार मोदी को इ-त-ने नंबर मिलते रहे। जब किसी एक व्यक्ति को केंद्र में रखकर पूरा चुनाव हो तो जीत या हार किसी दल की नहीं होती, तानाशाह की होती है।’

‘ जनता का विश्वास कांग्रेस के कारनामों के कारण लोकतंत्र से उठ गया था। वह तानाशाह चुन रही थी और मोदी को चुन लिया था। कर्मकांड 2014 में पूरा हुआ। कांग्रेस 2013 में मान चुकी थी कि वह हार गई और जल्दी-जल्दी जो जर-जमीन हथियाया जा सकता था उसे हथियाने पर जुट गई थी, फिर भी एक आखिरी बाजी उसने लगाई, सबको भोजन का अधिकार। समाज ने समझा, ‘सब कुछ खा जाने का अधिकार।’ उसने कांग्रेस को यह बता दिया कि देश-हित तुम्हारी प्राथमिकता नहीं। उसने उसे हराया नहीं, धक्के देकर बाहर कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है, परंतु इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

‘ अकेली ऐसी पार्टी जिसका देशव्यापी जनाधार था, जो ही विकल्प बन सकती थी, उसने अपना नैतिक औचित्य खो दिया। वह हारी नहीं। लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है। कांग्रेस का सफाया हो गया फिर भी प्रबल शक्ति बन कर सत्ता में आई, क्योंकि जिस विकल्प ने उसे सत्ता से बाहर किया था, वह धँस गया। कोई दूसरा विकल्प ही न था। इस बार कांग्रेस हारी नहीं है, अपनी भ्रष्टता के कारण अपना नैतिक अधिकार खोकर धँस गई है और अब नेहरू परिवार से बाहर आकर भी अपने मलबे सँभाल नहीं सकती। दुखद स्थिति है, पर है। क्या किया जा सकता है!

‘ इसमें आशा की किरण एक ही है कि लोगों ने भले तानाशाह चुना हो, इस व्यक्ति को लोकतंत्र में इतना अंडिग विश्वास है कि यह अपना विकल्प स्वयं पैदा करेगा। पर वह विकल्प या विपक्ष विकास की नीतियों से संचालित होगा, जाति और धर्म से नहीं।

‘ और जानते हो यह भी मोदी के कारण नहीं होगा, इतिहास के कारण होगा। पूँजीवादी विकास के कारण होगा। तानाशाही पूँजीवाद को रास नहीं आती। तानाशाही मध्यकालीन मनोवृत्ति है। तानाशाह स्वेच्छाचारी राजा का प्रतिरूप। मोदी को इसकी समझ हे, दूसरों को नहीं। वह बार-बार इसकी याद दिलाते हैं कि यह लोकतंत्र की महिमा है कि एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन गया। यह भारत में उभरते पूँजीवादी दबाव की भी महिमा है या नहीं?

‘ जनता ने भले तानाशाह चुना हो वह तानाशाह लोकतांत्रिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रहा है, दुश्मनों और सगों दोनों से एक साथ लड़ता हुआ। ‘

02-11-2015