सरयू से गंगा


कमलाकांत त्रिपाठी के उपन्यास ‘सरयू से गंगा’ का अंश

…प्लासी की परिणति में कंपनी के पिट्ठू मीर जाफर को बंगाल की गद्दी मिलने के बाद तो इन किसानों-बुनकरों की फरियाद सुननेवाला भी कोई नहीं रहा। कंपनी के कारकुनों का मन इतना बढ़ गया कि वे कर-वसूली और कानून-व्यवस्था के काम में लगे नाज़िमों और फौज़दारों से भी दो-दो हाथ करने को तैयार रहने लगे। कंपनी के ढाका, कासिमबाजार और अजीमाबाद (पटना) के ‘कारखानों’ में हथियारबंद सिपाहियों की कुमुकें रहती थीं जो उसके गुमाश्तों के साथ चलती थीं। एक बार तो पटना के एजेंट एलिस ने अपनी 500 सिपाहियों की कुमुक नवाब के मुँगेर किले की ही तलाशी लेने भेज दी-महज़ इस संदेह पर कि वहाँ कंपनी के दो भगोड़े छिपे हुए हैं। नवाब की अदालतों को तो वे मानते ही नहीं थे। वे तो अपने को बरतानिया कानून और बरतानिया अदालत के अधीन कहते थे, रहें चाहे जहाँ…हाय रे बुल-1493 का पापल बुल!

बक्सर में हिंदुस्तानी पक्ष की हार इसलिए नहीं होती कि अंग्रेजी सेना का नेतृत्व करनेवाले कोई बेहतर या असाधारण रूप से बहादुर इंसान हैं। उनका कंपनी से और कंपनी का इंग्लैंड की संसद से वही नाता है जो आपसी लाभ के लिए गोलबंद हुए खुदगर्ज मुनाफाख़ोरों का होता है। सिर्फ आयात-निर्यात के लिए कंपनी को मिली छूट का उसके कारकुनों द्वारा देश के भीतर निजी व्यापार के लिए इस्तेमाल कंपनी के हित पर भी कुठाराघात है। नौकर का मन निजी फायदे में लग गया तो मालिक के काम पर उसका ध्यान क्‍या रहेगा! और देशी व्यापारियों को दस्तक बेचकर जो लाभ मिलता है उसे भी तो कर्मचारी ही हड़प रहे हैं। कर्मचारियों के निजी व्यापार और मूलतः उनके निजी हितों के लिए लड़े गए युद्धों से कंपनी का जो माली नुकसान हो रहा है उसके चलते वह सन्‌ 1772 तक दिवालिया होने के कगार पर पहुँच जाएगी।

जैसा कि भ्रष्ट कर्मचारी अक्सर करते हैं, इस निजी व्यापार को वे अपने अल्पवेतन की बिना पर न्यायोचित ठहराते हैं। अल्पवेतन की भरपाई कितने से होगी? एक बार मर्यादा टूटी तो विचलन कहाँ जाकर रुकेगा, कोई अंत है? ‘अल्पवेतन’ वाली कंपनी कौ यह नौकरी इतनी आकर्षक है कि बरतानिया के तमाम शिक्षित-अर्धशिक्षित नौजवान इसके पीछे भागते, हिंदुस्तान चले आ रहे हैं। निरापद और सर्वस्वीकृत व्यक्तिगत लूट से रातोरात मालामाल होने का ऐसा अवसर और कहाँ मिलेगा?

कंपनी के हिस्सेदार भी कंपनी को चूना लगानेवाली इन हरकतों से अलग कहाँ हैं? हिंदुस्तान से लूट-खसोटकर ले जाया गया धन ही तो उनके शेयरों में लगा है। प्लासी के षड्यंत्रकारी अभियान से कंपनी को देय मुआवजे के अलावा रिश्वत के दो लाख चौंतीस हज़ार पौंड लेकर क्लाइव सन्‌ 1760 में इंग्लैंड पहुँचा तो वहाँ उसने कंपनी के इतने सारे शेयर ख़रीद लिए कि उस पर नियंत्रण पाने की होड़ में शामिल हो गया। इस नव-अर्जित धन से उसने हाउस ऑफ लॉर्ड की सदस्यता हासिल की और उसके प्रभाव से बंगाल का गवर्नर और मुख्य सेनापति नियुक्त होकर चार साल बाद दुबारा हिंदुस्तान चल पड़ा…और जब संसद में उस पर अभियोग चलेगा (1773) तो वह कहेगा-महोदय! मुझे तो अपने संयम पर आश्चर्य है, कि मैंने इतना ही क्‍यों लिया, मेरे सामने तो नवाब का पूरा खजाना खुला पड़ा था और मुझसे कहा गया था, जितना चाहिए, ले लीजिए…फिर, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जो कंपनी की परिपाटी के ख़िलाफ़ हो…और संसद उसके द्वारा मुकुट को दी गई सेवाओं का ध्यान रखते हुए उसे बरी कर देगी…अगर वह अगले साल खुदकुशी कर लेगा तो इसमें संसद का क्‍या दोष? क्लाइव…फिर मुलाकात होगी क्लाइव से। दुबारा हिंदुस्तान आ रहा है…अभी समुद्र में है।

जब कंपनी के खुदगर्ज कर्मचारियों को अपने निजी लाभ के लिए कंपनी के ही नफे-नुकसान का ख़्याल नहीं तो देशी व्यापारियों, किसानों और बुनकरों की मिट्टी पलीद करने में वे कोई कसर क्यों उठा रखेंगे? देशी व्यापारी या तो चुंगी और महसूल की भारी रकमें अदा करें, नहीं तो अंग्रेज कारकुनों से दस्तक खरीदें। ऐसे में कंपनी और उसके बदगुमान कर्मचारियों के सामने वे बाज़ार में कहाँ टिक सकते हैं? उन्हें तो देर-सवेर जाना ही है।

उधर कंपनी के गुमाश्तों की मनमानी से आजिज आए बुनकर और दस्तकार भी काम छोड़कर गाँवों की ओर पलायन कर रहे हैं। वहाँ ऊँचे लगान पर छोटी-छोटी काश्त का जुगाड़कर अलाभकारी खेती करने, नहीं तो खेत-मजदूर बनकर खटने के अलावा उनके सामने और कोई चारा नहीं। और वे अपने पुश्तैनी पेशे के चलते दोनों कामों के लिए एकदम नौसिखिया और शारिरिक रूप से अक्षम हैं।

इस तरह उत्पादन और व्यापार दोनों में अभूतपूर्व गिरावट से नवाबी खजाने को तो सूखना ही है।

कंपनी के कर्मचारियों और गुमाश्तों की धाँधली से खाली हुए ख़जाने के कारण मीर जाफर कंपनी को देय मुआवजा चुकाने में असमर्थ रहता है। क्लाइव के बाद गवर्नर बना वेंसिटार्ट उसे नवाब की गद्दी से उतारकर उसके दामाद मीर कासिम को गद्दी देने की पेशकश करता है। गुप्त वार्ता में कासिम वादा करता है कि कंपनी का बकाया चुकाने के अलावा वह बंगाल के तीन सबसे उपजाऊ ज़िले वर्दवान, मिदनापुर और चटगाँव कंपनी के हवाले कर देगा और कलकत्ता-कौंसिल को दो लाख पौंड की रिश्वत अलग से देगा। जब वेंसिटार्ट सेना के साथ मीर जाफुर को हटाने मुर्शिदावाद की ओर बढ़ता है, जाफर बिना किसी खून-ख़राबे के गद्दी छोड़ देता है। तो इस बार सत्ता-परिवर्तन होता है एक ‘रक्तहीन क्रांति’ से और मीर कासिम बन जाता है नया नवाब (1760)।

और मैं, इतिहास, झाँक रहा हूँ कासिम की बीवी के दिल में, जो जाफर की बेटी है। औरतें तो सत्ता की बिसात में छोटे प्यादे-जैसी रही हैं, जिन्हें बिसूरता छोड़ वजीर और घोड़े और हाथी और ऊँट मैदान में आगे बढ़ जाते हैं।

मीर कासिम अतिशय महत्त्वाकांक्षी तो है ही, कर्मठ भी है। वह बेहद सख्ती से लगान और महसूलों की उगाही करके रिश्वत देने का वादा तो पूरा करता ही है, कंपनी को जाफर का बकाया भी अदा कर देता है। वादे के अनुसार तीनों जिले कंपनी के हवाले करने में तो कोई दिक्कत ही नहीं। ऐसे में महत्त्वाकांक्षी कासिम का यह सोचना लाज़िमी है कि इतना करने के बाद अब वह कंपनी का जुआ उतारकर पूरी तरह आज़ाद हो सकता है।

कलकत्ते के अंग्रेजों की रोज़-रोज् की किचकिच से नजात पाने के लिए वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुँगेर उठा ले जाता है। सेना की तादाद बढ़ाने और यूरोपी साहसिकों की मदद से उसे ठीक से प्रशिक्षित करने की योजना बनाता है। लेकिन इसके लिए जब ख़जाने का जायज़ा लिया जाता है तो वह तो करीब-करीब ख़ाली है। बहुत सोच-विचार करने पर उसे एक ही रास्ता नज़र आता है-अंग्रेजों के निजी व्यापार पर कर की गैरकानूनी छूट का ख़ात्मा, क्योंकि उसका ज़िक्र न किसी फरमान में है, न किसी इकरारनामे में।

लेकिन यहाँ कासिम भूल जाता है कि विष की बेल पर अमृत नहीं फला करता। मीर जाफर ने अपने स्वामी सिराजुद्दौला से ऐतिहासिक गद्दी की थी। कासिम ने अपने श्वसुर मीर जाफर से वैसी ही गद्दारी की है। अब वह चाहता है, अंग्रेज, जिनकी शह पर उसने गद्दारी की और जिनके बल पर वह नवाब बना, ठीक इकरारों और फरमानों के अनुसार चलें। उसे भान नहीं है कि निरंकुश फौजी ताकत, मौकापरस्ती, विश्वासघात और मक्‍कारी के उस दौर में न्याय और नीति की गुहार लगाना कितना बेमानी है! उस दौर में क्या, किसी भी दौर में!…लेकिन हुआ है, मेरे सामने कई बार हुआ है, दूसरों के साथ दगा करनेवाले भी अपने लिए न्याय की गुहार लगाते हैं।

कासिम बार-बार आपत्ति उठाता है तो गवर्नर वेंसिटार्ट उससे बात करने मुँगेर आता है। देशी व्यापारियों से महसूल की कई दरें हैं जो 40 प्रतिशत तक जाती हैं। नवाब मान जाता है कि अंग्रेज अपने निजी व्यापार पर बस रियायती 9 प्रतिशत महसूल दे दें। लेकिन कंपनी के कर्मचारियों को नवाबी अदालतों और फौजदारों के अधिकार से मुक्त रखने के सवाल पर वह एकदम से अड़ जाता है। वह जानता है, ऐसा होने पर तो अंग्रेजों से कुछ भी वसूल नहीं होगा। आख़िर दोनों के बीच इकरारनामे का जो मसौदा बनता है, उसमें वेंसिटार्ट को नवाबी अदालतों और हाकिमों का अधिकार मानना पड़ता है।…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *