श्री अरविंद का पत्र मृणालिनी के नाम
(श्री अरविंद: बंगाल-विभाजन के समय का सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी, जो बाद में राजनीति से ‘संन्यास’ लेकर धर्म की शरण में चला गया…)
प्रिये,
याद रखो, तुम्हारा विवाह एक अजीब व असाधारण आदमी से हुआ है। उसे पागल भी कहा जा सकता है। लेकिन जब एक ‘पागल’ आदमी अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तो दुनिया उसे महान् कहकर पुकारती है। मैंने अभी तक अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं किया है। अभी तक मैंने संजीदगी से अपने को नियमपूर्वक काम में लगाया भी नहीं है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब मैं वैसा करूँगा। क्या तब तुम एक सच्ची ‘सहधर्मिनी’ और अपने पति की ‘शक्ति’ बनकर मेरी बगल में खड़ी होओगे?
तीन शक्तिशाली धारणाएँ, जिन्हें दुनियसा पागलपन के विचार कहेगी, मेरे हृदय में जड़ जमाती जा रही हैं। पहली यह कि जो कुछ भी मेरे पास है, वह असल में भगवान् की धरोहर है और अपनी कमाई में से बहुत थोड़ा खर्च करने का ही मैं हकदार हूँ। बाकी धर्म-कार्यों में लगना चाहिए…अभी तक मैंने रुपए में दो आने ही भगवान् को लौटाए हैं…इतना अधूरा हिसाब मैंने उसको दिया है! तुम्हें या बहन सरोजिनी को रुपया देना बहुत आसान है, लेकिन मेरा कर्तव्य तीस करोड़ भारतीयों को भाई-बहन समझना है। इसी शर्त पर भगवान् ने मुझे रुपया दिया था। मेरा कर्तव्य है कि देश के लोगों के कष्ट दूर करने के लिए सब कुछ करूँ।
दूसरे, मैं भगवान् के दर्शन करना चाहता हूँ! रास्ता कितना भी लंबा क्यों न हो और यात्रा कितनी भी कठिन क्यों न हो, मैं उन्हें आमने-सामने देखूँगा। और भगवान् है-और वह है-तो उससे साक्षात्कार करने का तथा उसे अनुभव करने का कोई न कोई रास्ता जरूर होगा। हिंदू शास्त्रों का कहना है कि भगवान् को देखा जा सकता है। वे इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ विधियाँ निश्चित करते हैं। अपने सीमित व्यक्तिगत अनुभव से मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि हिंदू शास्त्रों की बात में सच्चाई है। तुम अगर मेरे साथ न भी चल सको, पर मेरे पीछे-पीछे तो ईश्वर-प्राप्ति की यात्रा पर चल सकोगी न?
तीसरे, मैं इस देश को सिर्फ एक भौगोलिक इकाई नहीं मानता। एक इकाई जिस पर पहाड़ियों के धब्बे हैं, चदियों की लकीरें और मैदानों के फैलाव हैं, बल्कि इसे माँ मानता हूँ। माँ के इस भौतिक शरीर के पीछे एक आत्मिक सच्चाई है। एक राक्षस माँ के जीवन-रक्त को चूस रहा है। मैं जानता हूँ, उसे राक्षस के चंगुल से बचाने की ताकत मुझमें है, और वह मैं करूँगा; लेकिन क्षत्रिय तेज के द्वारा नहीं, बल्कि अपने ब्रह्म तेज के द्वारा इस महाव्रत को मैं पूरा करके दिखलाऊँगा। यह एक सनक मात्र नहीं है। मेरी हड्डियों में ईश्वरा ने यह सब भरकर मुझे भेजा है। इसका बीज चौदह वर्ष की आयु में ही फूटना आरंभ हो गया था। अट्ठारह वर्ष की आयु तक यह जड़ें जमा चुका था। क्या तुम मेरी अपनी पत्नी मेरे साथ खड़ी होओगी और मुझे उत्साह व शक्ति दोगी? यद्यपि देखने में तुम एक कमजोर औरत लगती हो, पर तुम भी पूर्ण आत्मसमर्पण की भावना से ईश्वर में विश्वास रखकर काफी साहस दिखा सकती हो और बहुत कुछ प्राप्त कर सकती हो। हम दोनों इकट्ठे मिलकर ईश्वर की इच्छा पूरी कर सकते हैं…
—अरविंद
शायर दाग़ का पत्र मुन्नी बाई के नाम
(दाग: उर्दू का वह महान् शायर, जो फौजी वातारण में जन्मा और बड़ा हुआ, मगर जिसने तलवार चलाने की बजाय फूलों के गीत बुनने ज्यादा पसंद किए…)
बाई जी, सलाम शौक!
गजब तो यह है कि दूर बैठी हो। पास होतीं तो सैर होती। कभी तुम्हारे चारों और घूमता और शोला बन जाता और कभी तुम्हें शमा करार देता और पतंगा बनकर कुरबान हो जाता। कभी तुम्हारी बलाएँ लेता और कभी सदके कुरबान हो जाता। एक खत भेजा है। जवाब की इंतजार की मुद्दत खत्म नहीं हुई कि दूसरा लिखने लगा। खुदा के लिए जल्दी आओ या आने की तारीख तय करके खबर दो। दिन-रात इंतजार में गुजरते हैं। वहाँ के लोग क्योंकर इजाजत देंगे? तुम्हीं चाहोगी तो छुट्टी ले सकोगी…मैं तुम्हारे लिए बिलबिला रहा हूँ…ये भयानक काली रातें, यह अकेलापन! क्या कहँू, क्योंकर तड़प-तड़पकर सुबह की सूरत देखता हूँ? यकीन मानना, ऐसे तड़पता हूँ, जैसे बुलबुल पिंजरे में। मेरे दोनों खतों का जवाब आना जरूरी है…
तुम्हारा दिलदादा, मुन्तजर
—दाग़