प्रख्यात लेखक कमलाकांत त्रिपाठी के नए कहानी संग्रह ‘बड़की बहू’ में से...
मुगल के साथ एक दिन
महकमे का मुगल था वह। साल भर पहले उसका तबादला हो गया था पर उसका वजूद अभी भी वहाँ गूँज रहा था। शहर की हवा में मुगल का नाम अब भी लहराता था। उसकी जड़ों के रेशे शहर की रगों में दूर-दूर तक फैले थे और महकमे से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे वे कहीं न कहीं से छू न गए हों। वैसे तैनाती के हर शहर में उसके साथ ऐसा कुछ होता था पर इस शहर पर उसका रंग कुछ ज़्यादा ही चढ़ा था। लगता था, वह शुरू से इस शहर के लिए और यह शहर उसके लिए बना था।
उन दिनों मुगल आया हुआ था। महीने-दो महीने में उसके चक्कर लग जाते थे। उसने शहर में बहुत सारे बीज बो रखे थे, बहुत सारे पौधे रोप रखे थे। वे अब भी लहलहा रहे थे। उनसे अपने को एकदम से काट लेना संभव नहीं रहा होगा। वह जहाँ भी गया, शहर में उसकी मौजूदगी बज रही थी, जैसे लोगों के ज़ेहन में उसकी अदृश्य छाया डोलती हो। लोग उससे या तो मिल चुके थे या मिलने की तदबीर में थे।
उस समय वह दफ्तर के पासवाले रेस्तराँ में कुछ लोगों के साथ लंच लेने बैठा था। तभी मुगल अपने हुजूम के साथ अचानक वहाँ आ पहुँचा। उसके आने की धमक से पूरा रेस्तराँ हिल उठा। जैसे गर्मजोशी का झोंका-सा आया हो। उसके चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान थी जो लोगों को एक साथ आश्वस्त और निरस्त्र कर देती है। दो-एक हलके, मज़ाकिया जुमलों से ही उसने वर्षों की दूरी काटकर उसे आत्मीय ऊष्मा के घेरे में ले लिया। उसके साथ होने मात्र से अजीब निद्वंद्वात आ जाती थी, सब कुछ अनुकूल और ग्राह्म लगने लगता था।
वे उत्तेजित उत्सुकता में उसके गिर्द सिमट आए। आनन-फानन में एक बड़ी सी मेज़ ख़ाली कर उसकी जमात के बैठने की व्यवस्था कर दी गई।
उसके एक चेले ने सबसे पूछ-पूछकर ऑर्डर करने का दायित्व सँभाल लिया। बीच में उसे रोककर उसने रेस्तराँ के मालिक को बुलवाया। अपने ख़ास याराना लहज़े में उसका हालचाल पूछा। मालिक बराबर अंग्रेजी में बोलता रहा, लेकिन मुगल की अधिकारपूर्ण, दमदार हिंदी और पुरलुत्फ अवधी टोन के सामने उसकी निर्जीव, कारोबारी अंग्रेजी मिमियाती हुई सी लग रही थी।
“यार, तुम्हारा तो बार भी खुलनेवाला था। क्या हुआ उसका?”
“जल्दी ही हो जाएगा, सर। बस थोड़ी सी कसर है। अब आप आ गए. हैं तो…”
“फ़िक्र न करो…कल फ़ोन करके याद दिला देना।” मुगल का साम्राज्य एक महकमे तक सीमित नहीं था। उसके जन-संपर्क का दायरा बहुत विस्तीर्ण और बहुत ऊँचाई तक फैला था और काम के हर महकमे में उसके उपकृत बैठे हुए थे।
“क्या लेंगे सर? आपके लिए क्या बंदिश!…जो कहें…”
“बोलो।” उसकी ओर मुख़ातिब मुगल की निगाह में मस्ती-घुली चुनौती थी।
“ अभी…ऑफिस लौटना है।” वह सिटपिटाया।
“हँह…गोली मारो ऑफिस को आज।” उसने बेफिक्री के अंदाज़ में कंधे उचकाए।
“मेरे और इसके लिए वोदका…आप लोग अपना-अपना बता दीजिए।”
फिर उसकी ओर मुख़ातिब हुआ तो स्वर में स्नेहिल गंभीरता उतर आई।
“अभी तो आए हो। थोड़ा रिलैक्स हो लो। घूम-फिर लो। शहर को “फील’ करो…बाद में तो मुझे मालूम है तुम काम में पिल पड़ोगे…हाँ, तुम्हारा बॉस कौन हे?”
जवाब उसके एह्ः चेले ने दिया।
“परेशान न हो, मैं बोल दूँगा। ध्यान रखेगा। यार है अपना।”
एक लार्ज। फिर दूसरा लार्ज। उसके ख़त्म होते-होते खाना लग गया। खाने के साथ मुगल ने तीसरा लार्ज लिया। बहुत ना-नुकर के बावजूद उसे भी एक सस््मॉल और लेना पड़ा। आसपास की मेज़ों पर बैठे लोग इस अप्रत्याशित जश्न को ईर्ष्या-मिली उत्सुकता से देख रहे थे। महिलाओं के चेहरे पर किंचित् असुरक्षाजनित असुविधा का भी भाव था।
विशिष्ट होने की आत्मतुष्टि और अवांछित सुविधा के अपराधबोध के घालमेल से सुरूर की पहली उठान शुरू हुई थी। फिर तो धीरे-धीरे सब कुछ बेमानी हो गया था और वे जैसे लहराते समुद्र पर झूलती नावों में सवार हो गए थे। खाना ख़त्म होते-होते उनकी वाचालता बेलगाम होने लगी थी।
“शिंदे…ओ शिंदे?”
“जी सर?”
“देख, यह अपना ख़ास आदमी है। छोटा भाई जैसा। नया-नया आया है यहाँ। कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए इसे।”
“नहीं सर, मेरे रहते… ”
“और देख, यह बहुत तेजू ख़ाँ टाइप का अफसर है, पर आदमी अच्छा है,” फिर उसने हलके से एक आँख दबाई, “और रसिंक भी।”
“जी…जी सर।” हलके संकेत की स्वीकृति में भी शिंदे के चेहरे की गंभीर नम्रता अभेद्य थी। माहौल की बेतकल्लुफ उत्फुल्लता में भी वह अदब का तक़ाज्ञा नहीं भूला था।
शिंदे महकमे में क्लियरिंग एजेंट का काम करता था और छोटे से लेकर बड़े तमाम अफसरों का विश्वासपात्र था। शहर के सबसे ख़र्चीले इलाके में उसका शानदार फ्लैट था, कई एयरकंडीशंड (उस समय) गाड़ियाँ थीं जो ज़्यादातर अफसरों के सैर-सपाटे के काम आती थीं। लेकिन अफ़सरों की संगत में वह चूजे-जैसा दिखता था। सेवाभाव से नंत, हर काम के लिए रोबोट की तरह तत्पर। उसके धंधे में सफलता का यह पुराना आज्ञमाया हुआ नुस्खा था।
रेस्तराँ से निकले तो मुगल ने शिंदे की एयरकंडीशंड गाड़ी छोड़ दी। जमात से भी माफी माँग ली।
“तुम लोग अब चलो…मुझे कुछ ख़रीदारी करनी है। वहाँ से सीधे होटल आ जाऊँगा,” मुगल ने कहा।
“गाड़ी ले जाइए सर,” शिंदे ने कहा।
“नहीं, वहाँ पार्किंग में दिक्क़त होगी। मैं टैक्सी ले लूँगा।”
शिंदे ने आगे आग्रह नहीं किया, जैसे दोनों में गोपन किस्म की अंदरूनी समझ हो।
वह भी जमात के साथ चलने लगा तो मुगल ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“तुम कहाँ?”
वह असमंजस में खड़ा हो गया।
“तुम्हारे लिए ही तो मैंने सबसे जान छुडाई है।” मुगल उसके कान में फुसफुसाया।
वह टैक्सी में बैठा तो मुगल पर अपने एकछत्र आधिपत्य के मुक्त आनंद से अभिभूत था।
टैक्सी में बैठते ही मुगल ने आदत के अनुसार ड्राइवर से अपनत्व-भरी बातें शुरू कर दीं। वह पड़ोस के ज़िले का निकला। पहले तो वह थोड़ा खिंचा-खिंचा रहा लेकिन मुगल के स्वर की आत्मीय मिठास से प्रोत्साहित होकर अपने गाँव के आसपास की मशहूर जगहों और खेती-गृहस्थी की आम समस्याओं पर बातें करने लगा। ड्राइवर की ग्राम्य संवेदना छू लेने के बाद मुगल ने बगल में बैठे उसकी ओर रुख़ किया।
“जब भी बंबई आता हूँ और टैक्सी में बैठता हूँ, काका की बहुत याद आती है। सत्रह साल के थे जब गरीबी से आजिज्ञ आकर घर से भाग आए थे। क्या-क्या नहीं किया यहाँ, कहाँ-कहाँ नहीं भटके। बाद में टैक्सी चलानी सीखी, लाइसेंस निकलवाया। पहले सिर्फ़ रात की पाली में चलाने को मिलती थी। फिर दिन में चलाने लगे। फिर तो पूरी ज़िंदगी उसी में गुज़ार दी। अंत तक उनकी साध रह ही गई कि उनकी अपनी टैक्सी होती…उनके तो बाल-बच्चे थे नहीं-शादी ही नहीं हुई थी। हमीं लोगों को पालकर बड़ा करने, पढ़ाने-लिखाने में अपने को होम कर दिया…वे भागकर बंबई न आए होते तो मेरा क्या होता, मैं आज कहाँ होता!”…..