कुछ अलग से
“दस्तावेज’ के कई संपादकीय, साहित्यिक विषयों या साहित्यकारों पर केंद्रित लेखों के रूप में हैं, कई यात्रा संस्मरणों के रूप में तथा कुछ कविताओं के रूप में भी। ये अलग-अलग अपनी विधा की पुस्तकों में ही प्रकाशित होंगे। मेरी कुछ आलोचना पुस्तकों, यात्रा संस्मरणों और काव्य संकलनों में ये संपादकीय प्रकाशित हो चुके हैं। अतः इन्हें प्रस्तुत पुस्तक में न देना ही ठीक लगा। लेकिन “दस्तावेजु’ के बहुत से संपादकीय सामाजिक-राजनीतिक विषयों या देश की महत्त्वपूर्ण तात्कालिक समस्याओं पर हैं जिनका प्रकाशन अलग से स्वतंत्र पुस्तक की मांग करता है। प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे ही संपादकीय प्रकाशित हो रहे हैं।
राजनीति और सामाजिक समस्याओं पर लिखी गई ये टिप्पणियां बहुत बेलाग और सख्त हैं। कुछ में तो राजनीतिक दलों या राजनेताओं या लेखकों के नाम लेकर उन्हें उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराया गया है और कभी उन्हें दोषी मानकर कठघरे में भी खड़ा किया गया है। मैं किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं हूं, अत: मेरा आक्रोश या विरोध भाव सबके प्रति व्यक्त हुआ है। इसे सात्त्तिक आक्रोश या एक नागरिक का कर्तव्य ही मानना चाहिए। एक लेखक इससे अधिक और कर भी क्या सकता है? मैं भारतीय गांव का एक साधारण व्यक्ति हूं और मैंने सामान्य जीवन को न केवल देखा है बल्कि उसी कीचड़ और आंधेरे में स्वयं सांस ले रहा हूं। इसके लिए जिम्मेदार लोगों के प्रति मेरे मन में शिकायत स्वाभाविक है।
कुछ टिप्पणियां साहित्य और साहित्यकारों से संबंधित हैं। कहना न होगा कि हमारे समय में साहित्य में भी राजनीति से कम पक्षपात, गुटबाजी और अव्यवस्था नहीं है। अनेक साहित्येतर कारणों से महिमामंडित हो चुके कुछ लेखकों ने साहित्य के साथ भी वैसा ही सलूक किया है जैसा राजनेताओं ने जनता के साथ।
इन टिप्पणियों में साहित्य, संस्कृति, भाषा, समाज और व्यक्तियों के प्रति जो कुछ भी व्यक्त हुआ है, वह गहरे देशराग के ही कारण। भारत का साधारण आदमी और उच्चतर मूल्य ही इन टिप्पणियों का पक्ष रहा है और उसे संकट में डालने वाला सब कुछ विपक्ष। भाव का जो अंश रचना में ढलने से रह गया, वही इस सीधे कथन के रूप में व्यक्त हुआ। संभव है सामाजिक समस्याओं को समझने में मुझसे कुछ भूल हुई हो या मेरी भाषाभिव्यक्ति में कुछ विचलन हो गया हो, पर समाज और मनुष्य के प्रति मेरे पूज्य भाव में कोई कमी नहीं है। समाज बदलेगा, समस्याएं बदलेंगी, जिन पर टिप्पणियां लिखी गई हैं, शायद वे भी बदलें, मगर ये टिप्पणियां अपने समय के यथार्थ का स्मरण कराएंगी। बहरहाल, इस संबंध में स्वयं मुझे ज्यादा नहीं कहना चाहिए, पाठक ही इसके हकदार हैं।