दस प्रतिनिधि कहानियाँ: श्रीलाल शुक्ल
इसी पुस्तक से एक कहानी : शिष्टाचार
एक दिन सवेरे नौ बजे जगन्नाथबख़्श सिंह बँगले के बाहरी बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे। सामने पहाड़ियों की नर्म ढलान थी जो नीचे एक हरी-भरी घाटी में खो जाती थी। उसके पार ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों का सिलसिला और उसके पीछे हिमालय की बर्फ ढँकी चोटियाँ। कुछ देर पहले वे सूरज की कुँवारी किरणों को छूकर झिलमिला रही थीं, इस समय धुंध में उनका धब्बा भी बाकी न था।
बाबू साहब का हृदय ईश्वर-भक्ति से परिपूरित हो उठा। उसी के कृपा-कटाक्ष से उनका बेटा इंजीनियर बना, इंजीनियर बनकर इस दिलकश पहाड़ी शहर में तैनात हुआ, उस शहर में उसे इतना खूबसूरत बँगला मिला, जहाँ खुद उन्होंने मैदानों की ज़लील गर्मी से बचकर आने और रहने का अवसर पाया। वह वही पहाड़ी शहर है जहाँ अपनी बादशाहत के दिनों में अंग्रेज़ लोग अपनी राजधानी बसाकर रहते थे, जहाँ आकर सिर्फ दो महीने बिताने की होड़ में छोटे-मोटे हिंदुस्तानी मुलाज़िम एक-दूसरे की गर्दन रेतने को तैयार रहते थे। प्रभु की लीला, बाबू साहब आज वहीं आकर इस तरह जमे हुए हैं जैसे यह उनका पुश्तैनी घर हो।
तभी अपने पोते की उन्हें आवाज़ सुनाई दी। हर तीसरे मध्यवित्त घराने के लड़के की तरह उसका घर का नाम बबलू था । वह आठ बरस का था और इस वक़्त फटे बाँस जैसे गले से चिंघाड़ रहा था : “रमेसर ! रमेसर !”
चौंककर उन्होंने बरामदे के बाईं ओर देखा। चार सीढ़ियाँ उतरते ही बँगले का बगीचा था। वहाँ अलग-अलग हिस्सों में फूलों और सब्ज़ी की क्यारियाँ थीं, किनारे-किनारे सेब और खूबानी के पेड़ थे। बबलू एक पेड़ के नीचे उछलता हुआ रमेसर का ऐसे अंदाज़ में आह्नान कर रहा था जैसे वह पूरे शहर के लिए कत्लेआम का फरमान जारी कर रहा हो।
बाबू साहब ने सधी आवाज़ में बरामदे से पुकारा, “बबलू !” सधी आवाज़ का जब पाँच बार सधा हुआ प्रयोग हो चुका तो बबलू ने अपने दादा की ओर देखा और वहीं से एक सवाल किया, “कहाँ गया रमेसर ?”
“बबलू, यहाँ आओ,” सधी आवाज़ का एक नया प्रयोग, जैसे पत्थर के टुकड़े को ढेले जैसा न फेंककर उसे चौथी मंज़िल से, अँगूठे और तर्जनी की चोंच खोलते हुए, नीचे टपका भर दिया गया हो।
अपनी फटी आवाज़ के परखचे समेटता हुआ बबलू धीरे-धीरे बरामदे में आया । चेहरे से लगता था कि दुनिया में कहीं चैन नहीं है और हर चीज़ की ईजाद उसे सिर्फ खिझाने के लिए हुई है। बाबू साहब ने एक हाथ फैलाकर उसे अपने पास आने का इशारा किया। वह उनके सामने आकर कुर्सी के पास खड़ा हो गया। उन्होंने कहा, “बैठो ! उसने पीछे मुड़कर बाग की ओर देखा, फिर कुर्सी के किनारे पर अधबैठे ढंग से बैठ गया। बाबू साहब ने कहा, “रमेसर को पुकार रहे थे न ?”
उसने उकताहट में सिर हिलाया जिसका मतलब था, ‘जी हाँ, पर आपसे मतलब ?’ बाबू साहब ने इस अर्थ के उत्तरार्ध का नोटिस नहीं लिया, कहा, “रमेसर यहाँ नहीं है। मैंने उसे सिगरेट लाने भेजा है।”
आप सिगरेट बहुत पीते हैं।”
अब सिर हिलाने की बारी बाबू साहब की थी। बबलू कुर्सी से उठने लगा; उन्होंने उसे बैठे रहने का इशारा किया और बोले, “बबलू बेटे, तुम्हें एक अच्छी बात सिखाने के लिए बुलाया है। मानोगे ?”
“कौन-सी अच्छी बात ?”
अच्छी सलाह देने और अच्छी सलाह लेने के लिए यह आदर्श वातावरण न था, फिर भी उन्होंने कर्तव्यवश कहा, “बेटे, यह जो रमेसर है न, इसे चिल्लाकर ऐसे मत बुलाया करो। वह तुमसे बड़ा है। उसे हमेशा भैया कहकर पुकारा करो।”
“क्यों ? वह मेरा भैया है ?”
“हाँ, गाँव के रिश्ते से वह तुम्हारा भैया ही है। “
” गाँव का रिश्ता ? यह क्या होता है ?”
“यह” के बाद बाबू साहब रुक गए, फिर बोले, “ऐसा है कि वह हमारे घर का आदमी है।”
“घर का आदमी ? यह क्या होता है ?”
बाबू साहब ने ज़ोर की साँस ली, प्राणायाम में जिसे कुंभक कहते हैं, उस स्टेज को काटकर सीधे रेचक में आ गए। ज़ोर से साँस छोड़कर कुछ सुस्ताए, धीरे-धीरे समझाने लगे, “ऐसा है बबलू बेटे, कि हम लोगों के घर में नौकर को भी ऐसे नहीं पुकारते। उसे घर का आदमी मानते हैं। अगर वह उम्र में छोटा हुआ तो उसे भैया कहते हैं और बड़ा हुआ तो काका । “
“काका ? यह क्या होता है ?”
“मेरा मतलब है चाचा ।”
“चाचा ? तो रमेसर मेरा चाचा है ? छोटे चच्चूजी जैसा ?” उन्होंने अपने को खींचकर काबू में लाते हुए कहा, “एकदम ऐसा नहीं है बेटे, पर यह हमारे घर का शिष्टाचार है।”
” शिष्टाचार ? यह क्या होता है ?”
उन्होंने चेहरा बेशिकन बनाए रखा। समझाया, “यानी एक-दूसरे से अच्छी तरह, मेरा मतलब है सभ्यता से, यानी “मेरा मतलब प्यार से बोलना। जैसे कि यह रमेसर है न, इसके बाप शारदाप्रसाद थे। वह भी हमारे यहाँ नौकर थे। तुम्हारे पापा उनको चाचा कहते थे, मैं भैया कहता था।…”
अब बबलू के चेहरे पर चमक और आवाज़ में खनक आई। उसने कहा, “रमेसर का बाप भी हमारा नौकर था ? और रमेसर का बाबा ?”
रमेसर का बाबा भी उनके यहाँ नौकर था। बाबू साहब के बाप उसे मिट्ठन काका कहकर पुकारते थे। पर बाबू साहब को लगा कि वह इतिहास अगर खुल गया तो शिष्टाचार का विषय उसके नीचे दब जाएगा। उन्होंने हिदायत जैसी दी, “उसके बाबा की बात जाने दो। बस, आज से इसे रमेसर मत कहना, रमेसर भैया कहकर पुकारना ।”
बहू बरामदे में आकर खड़ी हो गई थी और इस संवाद को तटस्थ भाव से सुन रही थी। अपनी खीझ को छिपाने की कोशिश किए बिना वे उससे बोले, ” बबलू को यह सब तुम्हें सिखाना चाहिए। यह परिवार की सभ्यता का सवाल है।”
बहू बिना कुछ कहे खामोश खड़ी रही। तभी उन्हें मालूम पड़ा कि बबलू के साथ उनके संवाद को एक और प्राणी सुनता रहा है। वह खुद रमेसर था। वह हाथ में सिगरेट का पैकैट लिए हुए सीढ़ियों के पास बगीचे में खड़ा था। बाबू साहब ने पूछा, “यहाँ खड़े-खड़े क्या कर रहे हो ?”
उसने कहा, “सिगरेट ले आया, सर।” ऊपर आकर उसने सिगरेट का पैकेट और कुछ रेज़गारी छोटी मेज़ पर अदब के साथ रख दी।
“इस तरह खड़े होकर घरवालों की आपसी बातें नहीं सुननी चाहिए।” वह मुड़कर सीढ़ियाँ उतर रहा था, उन्होंने उसकी पीठ से कहा।
वह ठिठक गया, बोला, “मैं तो अभी-अभी आया हूँ सर !”
वे कड़ी आवाज़ में बोले, “जाओ, अपना काम करो।”
दरअसल, समस्या इस ‘सर’ ने पैदा कर दी थी।
रमेसर का बाप शारदाप्रसाद और उसका बाप मिट्ठन घर के मुखिया को हमेशा ‘मालिक’ कहता था। उन्हें याद पड़ा, रमेसर भी गाँव में उन्हें मालिक ही कहता था। वे सोचने लगे कि रमेसर ने क्या कभी पहले भी उन्हें ‘सर’ कहा है ? शायद मँझले की सेवा में पहाड़ पर आने के बाद उसने यह नई चाल सीखी है।
तो, नए जमाने ने अब इतनी तरक्की कर ली है ! ‘मालिक’ को सिंहासन से उतारकर उन्हें ‘सर’ की कुर्सी पर बिठा दिया है ! यानी, अब वे बाबू साहब नहीं रहे, कोई पंचायत राज अधिकारी बन गए और रमेसर ख़ानदान का पुश्त दर पुश्त वाला ख़िदमतगार नहीं रहा, तीसरे चौथे दर्जे का सरकारी मुलाज़िम हो गया। तभी वह उन्हें ‘सर’ कहता है।
भीतर ही भीतर थोड़ी देर उबल चुकने पर उन्हें लगा कि वे रमेसर के साथ कुछ ज्यादती कर रहे हैं। जो ज़माना उनकी बहू और पोते को बदल चुका है, वही रमेसर को भी बदल रहा है। यह सोच चुकने पर भी ‘सर’ का झटका दिल में एक धीमे-धीमे दर्द जैसा अटका रहा। बाद में मँझले से उन्होंने परिहास की मुद्रा में कहा भी कि रमेसर को शायद पहाड़ की हवा लग गई है, उसने ‘सर’ कहना सीख लिया है ।
“पहाड़ का नहीं बाबूजी, यह मेरे साथ का असर है।” मँझले ने हँसकर जवाब दिया, “यहाँ दूसरे अफसरों के बीच बात-बात पर ‘मालिक’, ‘मालिक’ सुनना ठीक नहीं लगता। यहाँ के लिए ‘सर’ ही ठीक है।”
“तो यह तुम्हीं ने सिखाया है ?” कहकर उन्होंने रमेसर के मामले को कुछ नरमी से जाँचने का मन बनाया; उसे फाँसी की सज़ा मिली होती तो उसे वे इस समय आजीवन कारावास में बदलकर उसे चार साल बाद जेल से छोड़ने को तैयार हो सकते थे।
दूसरे दिन उन्होंने सर्वथा नए जोश से बबलू को परिवार का शिष्टाचार सिखाना शुरू किया। उन्हें इस मामले में मँझली बहू से कोई खास उम्मीद नहीं रह गई थी। ये सभी बहुएँ शहर की पैदावार हैं, बी०ए, एम०ए० पास हैं, ब्यूटी पार्लरों, नारी-पत्रिकाओं, पुरुष-प्रधान समाज की बेहूदगियों आदि की चर्चा करती हैं, उनमें से कुछ वर्ग शोषण और समाज की नई व्यवस्था वाले फिकरे भी याद करके आई हैं। उन्हें यह कहने में किसी ख़ास गर्व का एहसास नहीं होता कि भई, हमारे यहाँ नौकर को भी ‘चाचा’ या ‘भैया’ कहा जाता है।
बबलू पर अभी तक बाबू साहब की सीख का कोई असर नहीं हुआ था। साम और दाम बेकार साबित हुए थे, अब दंड की बारी थी।
उधर, यह जानकर कि रमेसर को ‘सर’ वाला शिष्टाचार किसी यूनियन के नेता ने नहीं, खुद उनके लड़के ने सिखाया है, वे रमेसर के बारे में कुछ ढीले पड़े। शाम को रमेसर उन्हें क्यारियों में कुछ काम करता हुआ दीखा। वे बगीचे में टहल रहे थे। उनकी इच्छा हुई कि उससे कुछ अच्छी बातें की जाएँ, उसे खुश होने का मौका दिया जाए। उसके पास खड़े होकर बोले, “यहाँ अब अच्छा लगता है न रमेसर ?”
“जी, सर ।”
‘सर’ के बारे में सब समझ चुकने पर भी उन्हें ‘मालिक’ की कमी अखरी । फिर भी उसे झेलकर उन्होंने कहा, “जाड़े में तकलीफ होती होगी ?”
“नहीं सर, यहाँ का विंटर सीज़न मुझे और भी अच्छा लगता है।” वे टहलने लगे। अचानक रुककर बोले, “तुम्हें अपने बाप की याद है रमेसर ?”
“नहीं सर। तब मैं बहुत छोटा था ।”
“बड़े भले आदमी थे। तब मैं उन्हें शारदा काका कहता था। सारी उमर हमारे यहाँ काम करते रहे। दुश्मनों ने उन्हें बहुत उलटा-सीधा समझाया। वे चाहते थे कि शारदा काका हमारा घर छोड़ दें। पर उन पर कोई असर नहीं। वे लोग वफादारी का मतलब समझते थे।”
रमेसर सिर झुकाए क्यारी गोड़ता रहा। उसकी ओर से कोई बढ़ावा न मिलने पर उनकी टाँगों में फिर से हरकत आ गई। वे टहलते रहे। थोड़ी देर में रमेसर वहाँ से उठकर फाटक के बाहर चला गया।
अचानक बबलू की चिंघाड़ उनके कान में गूँजी । वह बरामदे में आकर रमेसर, रमेसर’ कहते हुए गला फाड़ रहा था। उधर से कोई जवाब न पाकर उसने आवाज़ को और ऊपर ले जाने की कोशिश की। वह घिघियाकर चीखने लगा : “भ भे भ र ! भ रे भ र !!” तभी बाबू जगन्नाथबख़्श सिंह ने उसी बुलंदी पर अपनी आवाज़ ले जाकर उसे डाँटा, “रमेसर नहीं, रमेसर भैया ! बोल बेवकूफ, रमेसर भैया !”
उनकी ओर से बबलू ने कभी ऐसी उग्रता का अनुभव नहीं किया था। वह घबरा गया, उसकी आवाज़ का आयतन घट गया। इस बार उसने मरियल सुरों में पुकारा, “भभेभर भैयाऽऽऽ, भभेभर भइयाऽऽऽ!”
बाबू साहब ने फाटक की ओर निगाह घुमाई। वहाँ रमेसर एक पेड़ के नीचे ख़ामोश खड़ा था। बबलू की पुकार का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था। यह बदतमीज़ी थी। इस बार खुद बाबू साहब ने उसका नाम लेकर पुकारा। बबलू ने एक बार फिर से दोहराया, “भ भे भ र भइयाऽऽ !”
रमेसर के रंग-ढंग पर उन्हें हैरत थी, गुस्सा बढ़ रहा था। पर सबसे प्रबल अनुभव इस संतोष का था कि परिवार की सभ्यता के अनुसार बबलू अब उसे रमेसर भैया कह रहा है। यह नए जमाने के छिछलेपन पर परंपरा की जीत थी। उन्होंने रमेसर की ओर देखकर पुकारा, “सुन नहीं रहे हो, बबलू तुम्हें पुकार रहा है !”
लगा, रमेसर ने यह भी नहीं सुना, पर वह उनकी ओर आ रहा था। उनके पास आकर उसने एक नज़र बबलू पर डाली, फिर जैसे उसने बबलू को देखा ही न हो, उनसे कहा, “मुझे एक निवेदन करना है सर।”
तो, यह साला, बात-बात पर ‘सर’ कहने वाला, अब निवेदन करेगा ! उन्होंने कहा, “हाँ भाई, करो निवेदन ! क्या निवेदन करना है ?” उनकी ज़बान अगर काली पेंसिल होती तो अब तक ‘निवेदन’ को सत्तर बार रेखांकित कर चुकी होती। वह कुछ देर चकराया-सा खड़ा रहा, धीरे से बोला, “मेरे लिए रमेसर ही ठीक है सर ! बबलू बाबा मुझे भैया न कहा करें।”
“क्यों ?” कहते ही उन्हें इस गुस्ताख़ नौकर को दुरुस्त करने के लिए किसी अचूक नुस्खे की ज़रूरत महसूस हुई, पर कोई नुस्खा उन्हें तुरंत याद नहीं आया। उसने और भी धीरे से कहा, “मेरे लिए रमेसर ही भारी है।”
“क्या ? क्या कहा ?” उन्होंने सुन लिया था, फिर भी कड़ककर पूछा। रमेसर ने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करने के लिए सिर झुकाया और सामने से हटने लगा। बाबू साहब गरजे, “कहाँ जा रहा है ? दिमाग तो ठीक है?” पर वह फाटक ओर बढ़ता रहा; वे कहते ही रह गए, “ठहर ! अबे ठहर !”
जब वह फाटक के बाहर पहुँच गया तो उन्होंने बरामदे की ओर मुँह करके वहाँ बबलू के सिवाय और कोई नहीं है, इसे भुलाते हुए कहा, “यहाँ क्या कहा जाए ? इसका हिसाब अब गाँव में ही किया जाएगा।”
पर गाँव में हिसाब के लिए कुछ भी नहीं बचा था। सारा हिसाब इसी पहाड़ी शहर ही में हो चुका था। शाम को मँझले ने बताया कि रमेसर बाकायदा पूरा हिसाब करके, अपनी तनख्वाह लेकर और बाप के ज़माने से कागज़ पर लिखे गए कर्ज की रकम का भुगतान करके, किसी नौकरी की तलाश में दिल्ली चला गया है, उसके कुछ साथी वहाँ पहले ही से हैं।
“तुमने उसे जाने क्यों दिया
रोक भी कैसे सकता था ?
बाबू साहब अपने बेटे को जलती निगाहों से देखते रहे। सहसा बोले, “और मुझसे पूछे बिना तुमने उसे अपना पुराना कर्ज क्यों अदा करने दिया ? “
मँझले ने कोई जवाब नहीं दिया, बाबू साहब बोले, “जब कर्ज नहीं रहा तो आगे के लिए कोई रिश्ता ही कहाँ बचा !”
मँझला खामोशी से चाय पीता रहा।
तभी कमरे में बबलू ने प्रवेश किया और हाथ फैलाकर कहा, “वह चला गया !” उसकी आवाज़ की जोशीली खनक ने सबका ध्यान आकर्षित किया, पर किसी ने कुछ कहा नहीं। बबलू बाबू साहब के पास आकर उनका हाथ पकड़कर खींचने लगा, बोला, “बाबा! बाबा ! रमेसर भाग गया !”
इस बार उन्होंने गहरी साँस ली, यह देखकर उन्हें कुछ चैन मिला कि बबलू सही भाषा बोल रहा है; उसने यह नहीं कहा कि बाबा, रमेसर भैया चले गए।