Description
हिंदी में उत्तर आधुनिकतावाद की चर्चा को गंभीरता से लेने का समय आ गया है। अब आप उसे मुंह बिचकाकर खारिज नहीं कर सकते। हिंदी में लगभग दो दशकों से यह चर्चा जारी है और गुजराती, बंगाली आदि में इससे भी पहले। हिंदी के माक्र्सवादियों ने शुरू-शुरू में ‘उत्तर आधुनिक’ चिंतन को लेकर कितना हाय-तौबा किया। अब हालत यह है कि ल्योतार, देरिदा, मिशेलफूको, बौद्रिया, पाल डी मान, सुसान सोंटाग, इहाव हसन, एडवर्ड सईद आदि के बिना अपनी बात पूरी नहीं कर पाते। और फ्रैंकफुर्त स्कूल तो माई-बाप बन गया है। दरअसल, उत्तर आधुनिकता ने ‘नवजागरण’ तथा ‘इनलाइटेनमेंट’ की विरुद्ध सीधा संघर्ष किया। उत्तर आधुनिकतावाद ने ‘तर्क’ की यूरापीय पद्धति को नकारते हुए अर्थहीन सिद्ध कर दिया है। उत्तर आधुनिकतवाद ने घोषणा की है कि वह सांस्कृतिक बहुलतावाद, बहुवचनवाद, हर तरह के वैविध्यवाद का समर्थन करता है और जो दबाए गए हैं उन पर (नारी-विमर्श, दलित-विमर्श पर) नए सिरे से विचार करने की तमन्ना रखता है। ज्ञान के क्षेत्रों में आए विकास-प्रगति के अंतःसूत्रों में ‘आधुनिकता’ का रुतबा कम हुआ है। फिर फूको ने इतिहास के संदर्भ में सोचकर कहा कि अन्य इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों ने ‘डिफरेन्स’, ‘डी मिस्टीफाई’ और ‘डिसकंटीन्युटी’ के कारकों की खोज पर ध्यान दिया हैं इतिहास और राजनीति में ‘अदर’ या अन्य की खोज बढ़ी है तथा ‘अदर’ को उपेक्षितों के सरोकारों के कंेद्र में रखने से नया केंद्रवाद बना है। बाजारवाद की अर्थव्यवस्था ने हर माल चालू, हर माल बिकाऊ की नई भूमि तैयार की है। आज उत्तर आधुनिकतावाद आकाश की तरह व्यापक धारणा है, जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। हां, थोड़ा-बहुत समझा भर जा सकता है।