Description
“सच कहूं तो इन नेता-अफसरों के चरित्र और आचरण ने मेरा मनोबल बढ़ाया है। जैसे औलाद नालायक निकल जाए तो समझदार मां-बाप खुद में नई ताकत पैदा कर लेते हैं अपनी सार-संभाल की। वैसे ही जब मैंने यह देखा कि इन नेता-मंत्रियों, सरकारी कर्मचारियों से देश-समाज और नागरिक का भला होना मुश्किल है, तो बस अपना मनोबल ऊंचा कर लिया। रही बात आशा-चिंता की तो यदि आप आशा-अपेक्षा रखेंगे तो चिंता होगी ही। साथ ही दुःख भी मिलेगा। मेरे खयाल से पति-पत्नी या संतान से हमेशा किसी को मनचाहा सुख नहीं मिलता। इसके लिए तो मन को मनाकर संतोष रखना पड़ता है। मेरे दादा की छह संतानें थीं। चार लड़के, दो लड़कियां। बेचारे उनके पीछे अपना पूरा जीवन घिसते रहे। न बेटों ने सुख दिया, न बेटियों ने चैन। पर इसमें उनका भी क्या दोष! वे सब भी तो अपनी-अपनी गृहस्थी की गाड़ी चलाने की खींचतान में लगे हुए थे। यही हाल मेरे पिताजी का रहा। उन्हें न तो मैं कोई सुख दे पाया, न मेरा भाई। और यह अकेले मेरी नहीं, लगभग हर घर की कहानी है। फिर भला मैं अपने बेटे से कोई सुख पाने की अपेक्षा रखने की नादानी क्यों करूं!”
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