Description
बारह कहानियों के इस संकलन मृत्युराग में लेखक की कुछ कहानियाँ पूर्व-प्रकाशित संग्रह ‘जानकी बुआ’ की हैं, जो अब उपलब्ध नहीं है; इन कहानियों का पुनर्लेखन किया गया है। अन्य कहानियाँ पहले के संग्रहों में प्रकाशित नहीं हैं। ये कहानियाँ छीज चुके या तेज़ी से छीज रहे भारतीय ग्राम्य समाज के जीर्ण-जटिल यथार्थ में डुबकी लगाती हैं, उसमें संगर्भित शुभ को सँजोती हैं और परिवर्तन की दिशा के भटकाव और उसके कारणों पर क्षोभ दर्ज करती हैं। उस जीवन के अभ्यंतर की पड़ताल में यथार्थ के अंतिम रेशे से लड़ती, अखंड धूसर में दबे चटक रंगों के संघर्ष और उनकी संभावना का एक आत्मीय पाठ रचती हैं ये कहानियाँ। परिवेश और पात्रों के प्रति लेखक की सूक्ष्म संवेदना, उनके व्यापार में उसकी गहरी पैठ और मानवीय सरोकारों में उसकी अटूट आस्था कहानियों को आरोपण व वाग्जाल से मुक्त, एक सहज और प्रकृत कथारस से लबरेज़ करती हैं। बहुत मुखर न होने के बावजूद हर कहानी यात्रा के अवसान तक अपने अभिप्रेत से आप्यायित कर जाती है। अपनी स्वतंत्र पगडंडी की तलाश में ये कहानियाँ वर्तमान कहानी-जगत् की किसी रूढ़ धारा में बहने से सजग परहेज़ करती हैं। शीर्षक कहानी की प्रकृति थोड़ी भिन्न है। वह बहुशः आवृत के अनावरण की कथा है।
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