Description
खुशबू तो बचा ली जाए
तमाम आडंबरों, विडंबनाओं और त्रासदियों के रहते, घुटते हुए माहौल में, एक ताजा हवा का झोंका है— खुशबू तो बचा ली जाए । विवशताओं के चलते, खुद से जूझते और अँधेरों के लंबे रेगिस्तान में रोशनी की फिक्र, आस्थाओं की नदी और नूर की बारिश की प्रार्थनाएँ हैं इसकी गज़लें । कभी आगाह करती हैं तो कभी आह्वान । कभी अंतस में टीस भरती हैं तो कभी चेतना में उजास—और अपने होने का असर लेकर दूर तक साथ चलती हैं।
ओस में बंद सूरज, शंख में समाए नाद की तरह, दो मिसरों के बीच कहीं क्रांति की आग है तो कहीं विश्वास का चंदन । कहीं सांस्कृतिक सुरभि है तो कहीं वक्त की छटपटाहट-कहीं दहकते हुए सवाल हैं तो कहीं सुलगती हुई चिंताएँ ।
न कोई लाग-लपेट, न बनावट, सीधी-सच्ची बात, आप लोगों की बात, आमफहम भाषा में, जो हदय से चलकर हृदय से उतरती है। शायद इसीलिए इन ग़ज़लों ने, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय लेखों, महत्वपूर्ण अभियानों, आन्दोलनों से लेकर दार्शनिकों के प्रवचन तक सक्रिय भूमिका निभाई है । संक्रांति के इस युग में, मूल्यवान एवं पवित्र परंपराओं, मर्यादाओं और मानवीय संवेदनाओं को सहेजने की ईमानदार कोशिश है—’खुशबू तो बचा ली जाए’ ।