Description
नीलेष रघुवंषी में अपनी ही कविता और घर.संसार के लिए एक उत्सुक आलोचनात्मक रवैया बना रहा है।
नीलेष जादुई फंतासी की जगह घर.परिवार, बच्चे का जन्म, प्रसव के दर्द आदि को काव्य विशय बनाती हैं और उन्हें सादगी का मर्म जानने में ही कविता अकसर सहायक होती है। राजनीति प्रकट न हो, पर नीलेष इस हद तक समय से बेखबर नहीं हैं कि राजनीति उनके लिए सपाट झूठ और गलत षब्द हो। इस तरह नीलेष रघुवंषी को पढ़ना एक भरोसेमंद साथी को पढ़ना है। उनकी कविताएँ इधर की कविता में आए ठहराव, कीमियागिरी या उसके उलट सरलतावाद के विरुद्ध नया प्रस्थान हैं। स्त्रीवाद को विमर्ष बनाए बगैर नीलेष रघुवंषी के यहाँ संघर्शरत स्त्री है, जो जटिल समय को ‘क्लीषे’ नहीं बनने देती।
कविता अप्रत्याषित की खोज नहीं है-मामूलीपन के खटराग में औसतपन का प्रतिकार है। नीलेष गंजबासौदा की जनपदीय, कस्बाई चेतना से लबरेज लंबी कविताओं में वृत्तांत रचती हैं और भीतर. बाहर के सफरनामे को इस तरह संभव करती हैं कि ‘देखना’ क्रिया ‘जानना’ क्रिया से अभिन्न है।
आज जब कविता विचारधारा से ऊबकर षहरी भद्रलोक की कविता हो गई है, नीलेष किसान जीवन का वृत्तांत लिख रही हैं।
यही समय है जब किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मीडिया पर्यटन की डाॅक्यूमेंट्री बना रहा है। यहाँ किसान जीवन की त्रासदी है, तो तंत्र का षगल भी है और फिर ‘बाइट’!
यह है बदला हुआ समय, जहाँ क्रूरता भी प्रदर्षन प्रिय है। बीच.बीच में अनकहा छोड़कर वे कहे का मर्म खोल जाती हैं। विस्तार और संक्षेप का कोलाज हैं-नीलेष की कविताएँ। उनका वैविध्य चकित करता है।
घर.गिरस्ती, हाट.बाजार, सफर और समय की अनंतता के बीच नीलेष रघुवंषी कब ‘पर्सनल’ को ‘पाॅलिटिकल’ बना देंगी, कहना मुष्किल है। वे पर्यटक की निगाह से चीजों को नहीं देखतीं- जीवनअरण्य में धँसती हैं और स्त्री मुक्ति के साथ सामाजिक मुक्ति के लिए विकल.व्यग्र होती हैं।
नीलेष रघुवंषी ‘घर निकासी’ में प्रगीतात्मकता का सार्थक उपयोग कर सकीं। ‘पानी का स्वाद’ की कविताओं में काव्य फलक का विस्तार दिखा। ‘अंतिम पंक्ति’ की आधी कविताएँ आख्यानमूलक हैं। कहीं लैंडस्केप, कहीं दृष्य.श्रव्य का कोलाज, कहीं कथा.कहानी।
नीलेष रघुवंषी की कविता में नई खिड़कियाँ खुल रही हैं।
नीलेष की तद्भवता सिर्फ भाशायी खेल नहीं है, वह उनकी अपनी भाशायी अस्मिता है, जो सीधे संस्कृति से छनकर आती है।
वही कविता, वही जीवन श्रेश्ठ है जो विस्थापन को अतिक्रमित करता है। इस अवधारणा को नीलेष की कविताएँ चरितार्थ करती हैं। वे पुराने प्रतिमानों को खारिज करती हैं और सामाजिकता को ही राजनीतिक विमर्ष में ढालती हैं।
कविता का लोकरंग विस्थापन का प्रतिवाद है। स्थानीयता नीलेष की काव्यात्मकता का मुख्य ध्रुवक है। गंजबासौदा की धूल भी नीलेष के लिए कविता है। यह कविता का प्रकृत देषज ठाठ है। खुद से भिड़ने की ताकत।
परमानंद श्रीवास्तव के लेख से कुछ अंष
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