Description
एक ऐसे समय में जब कहानी से लगातार ‘कहानीपन’ या ‘कहानीपन’ के तत्त्व गायब होते जा रहे हैं संजीव बख्शी की कहानियों में ‘कहानीपन’ या ;किस्सागोई’ अपने विलक्षण रूप में मौजूद हैं। वे जिस सरलता, सहजता तथा सघनता के साथ अपनी कहानियों को बुनते हैं, वह उनके अद्भुत लेखकीय कौशल का परिचायक है। छत्तीसगढ़ के भोले-भाले ग्रामीण ही नहीं अपितु यहाँ के गाँव, जंगल तथा पहाड़ भी इनकी कहानियों में अपनी पूरी समग्रता के साथ उभरकर आते हैं। बावजूद इसके उनकी कहानियाँ ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है’ का प्रतिलोम रचती हुई छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन के धूसर एवं स्याह बिंब का चित्रण करती हैं। संजीव बख्शी की कहानियों में आदिवासी और किसानों के संघर्ष तथा स्वप्न का अपना एक अलग महत्त्व है इसलिए उनकी कहानियों में इनके संघर्ष को आसानी से चीन्हा जा सकता है। प्रतिरोध और संघर्ष का यह नैतिक साहस उनकी कहानियों की सबसे बड़ी ताकत है ‘अहा! बिजली’ और ‘खसरा नंबर चौरासी बटा एक रकबा पाँच डिसमिल’ जैसी कहानियाँ इसके विरल उदाहरण हैं। कहानी ‘खसरा नंबर चौरासी बटा एक रकबा पाँच डिसमिल’ अपनी मौलिक अंतर्वस्तु और सुगढ़ रूप-विधान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहानियों में से एक है। यह इस संग्रह की ही नहीं वरन इधर की श्रेष्ठ हिंदी कहानियों में भी शुमार होने का सामर्थ्य रखने वाली हमारे समय की बेमिसाल कहानी है। इस सुदीर्घ कहानी का पाठ करते हुए संजीव बख्शी के अनूठे तथा बेहद चर्चित उपन्यास ‘भूलन कांदा’ का याद आ जाना भी स्वाभाविक है। -रमेश अनुपम
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