Description
हाशिये का राग’ व्यंग्य संग्रह के नामकरण और इसमें शामिल लेखों पर समय-समय पर मेरे आदरणीय और प्रिय साथी टिप्पणी करते रहे हैं । फेसबुक और वाट्स ऐप तो इस अर्थ में बहुत लोकतांत्रिक मंच हैं ।” -लेखक पिछले दिनों का पत्र-पत्रिकाओँ का परिदृश्य ध्यान में आया जिसमें सुशील सिद्धार्थ के व्यंग्यलेख यत्र तत्र सर्वत्र छाए हुए हैं। भारी भरकम विचारों और ततैया छाप विमर्शों से भरी रचनाएं जब पाठक के पाचनतंत्र पर जुल्म ढाती है तब सुशील के व्यंग्य आपातकालीन रौशनदान की तरह सामने आते हैं। हिंदी साहित्य के प्रकांड पंडितों ने लंबे समय में साहित्य का ऐसा गरिष्ठ वरिष्ठ रसायन तैयार किया है जिसमें परिवर्तन लाने की सख्त जरूरत है। व्यंग्य लेखन आज विधा के रूप में स्थापित है क्योंकि यह यथार्थ के अवलोकन के लिए हमारी तीसरी आंख खोलता है। व्यंग्य की यह सामर्थ्य समय की जटिलताओं कुंटिलताओं और कुचक्रॉ की जकड़बदी पकड़ने में काम आती है। सुशील व्यंग्यात्मक तरीके से कहते रहते हैं कि उन पर किसी अग्रज व्यंग्यकार का कम ही प्रभाव पड़ा है लेकिन पाठक इस बात को कैसे भूल जाए कि उन्हें पढ़ते हुए कभी हरिशंकर परसाई याद आ जाते हैं, कभी श्रीलाल शुक्ल। हम यही कामना करते है कि बस इसी मानक पर सुशील सिद्धार्थ अपनी लेखनी की प्रत्यंचा कसे रहें। –ममता कालिया तुम्हारी राग-राग या नस-नस में खुराफाती व्यंग्य का पूरा एक सैलाब ठटठ मार रहा है। …अब चूँकि तुम्हारी रग-रग में व्यंग्य है तो तुम बेबस हो व्यंग्य की पर्त दर पर्त पूरी हुनरमंदी से जमाने के लिए। शुद्ध चौबीस कैरेट का माल, टटकी सोच और देशी मुहावरों की खेप पर खेप जमाने के लिए। सबसे अच्छी लगी बीच-बीच में पंच लाइनों को लाजवाब नुक्तेबाजी, जितनी मासूम उतनी शरारती। -सूर्यंबाला
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