सूरज उगता है, मध्याह्न होता है ओर फिर ढलना प्रारंभ हो जाता हे। मनुष्य जीवनपर्यत इन स्थितियों से गुजरता रहता है। विभिन्न प्रवृत्तियां, परिवर्तित होती मान्यताएं और अनुभव संपन्नता उसे बहुआयामी बनाती रहती हैं। कभी वह संन्यासी हो जाता है, कभी गृहस्थ।
संन्यास में महत्त्वाकांक्षा सम्मिलित हो जाती है चुपके से और उसे सामान्य संसारी मनुष्य के स्तर से नीचे खींचती हुई पतन की अतल गहराइयों में ले जाती है जहां संन्यासी अपराधी बन जाता है।
गृहस्थ जीवन में जब सबके सुख एवं हित की भावना जुड़ती है तो सामान्य व्यक्ति सारे सांसारिक कार्यकलाप के बीच भी संत ही होता है। और वे लोग जो सदियों से किसी विशेष जाति में पैदा होने के कारण मनुष्य से निम्नतर माने जाते रहे हैं, जब अपने स्व को पहचानने लगते हैं, कैसी छटपटाहट भर जाती है उनमें और कैसे हिंसक परिणाम झेलने पड़ते हैं उन्हें।
मानव जाति का आधा हिस्सा यानी स्त्री जो अभी तक मनुष्य नहीं मानी जाती, अब अपना स्थान और अधिकार पहचानने लगी है और उसके लिए आग्रहशील हो गई है तो कैसे-कैसे उद्लेलनों से गुजरना पड़ता है उसे।
इन सब बिंदुओं को समेटता और अपने परिचित परिवेश को एक नए कोण से प्रस्तुत करता है उपन्यास। प्रख्यात कथाकार महीप सिंह कौ त्रयी का तीसरा उपन्यास है- “धूप ढलने के बाद ‘।