रंग बसंती
आजादी के आंदोलन के संभवत: ऐसे दो ही क्रांतिकारी महानायक है, जो सैक्टेरियन सोच से परे जाकर व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं राजनीतिक विकास का स्वरूप सामने रखते है । किसी भी भारतीय से पूछिए, वह नेताजी सुभाषचंद्र बोस और भगतसिंह का नाम लेगा । प्रताप सहगल का ‘रंग बसंती’ नाटक भगतसिंह के जीवन का आख्यान मात्र नहीं, बल्कि उसके समय को भी पूरी शक्ति एवं जीवंतता के साथ हमारे सामने रखता है । भगतसिंह अपने जीवनकाल में ही लीजेंड बन गया था । उसके क्रांतिकारी कृत्यों को तो बार-बार सामने लाया गया, लेकिन उसके समाजवादी चिंतन को हमेशा नेपथ्य में ही रखा गया । भगतसिंह न सिर्फ अपने एक्शन में, बल्कि अपनी सोच में भी एक रैडिकल व्यक्तिव के रूप में सामने आता है । प्रस्तुत नाटक भगतसिंह के इसी रूप को हमारे सामने रखता है ।
नाटक का ढाँचा दृश्यों में बाँधा गया है, जो इसे बेहद लचीला बना देता है । मुक्ताकाशी रंगमंच हो या प्रेक्षागृह का मंच, शैली यथार्थवादी से या प्रतीकवादी- हर तरह से नाटक को खेलने की संभावनाएँ इसमें मौजूद हैं । बई बार मंचित होकर तथा साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा सर्वश्रेष्ठ नाट्यालेख के रूप में समादृत हो चुका ‘रंग बसंती’ नए रंग में पाठकों के हाथ में देते हुए सार्थकता का ही अनुभव किया जा सकता है । वस्तुत: गंभीर रंग-कर्म करने वालों के लिए यह एक उपहार है ।