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मुहाफ़िज़ / Muhaafiz

290.00 246.50

ISBN : 978-81-89982-72-0
Edition: 2012
Pages: 184
Language: Hindi
Format: Hardback


Author : Vijay

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Description

मुहाफ़िज़

”आतंकवाद बाहर से आया था, पर अब अंदरूनी आतंकवाद क्या कम खतरनाक है? माओवादी, नक्सल और हिंदू आतंकवादी भी खूब बढ़ रहे हैं, मगर हमारे नेता बाज़ार के दलाल बने अपनी जेबें भरने में लगे रहते हैं। किसी को न्याय-व्यवस्था में कमी नज़र नहीं आती है।“

”असल में सर, नेहरू जी ने कहा था कि जनजातियों को जैसा वे चाहती हैं रहने दो, मगर अतिक्रमण हमारी तरफ से होेता रहा। दूसरे लाभ पाते रहे और जनजातियांे को हर जगह अतिक्रमण का शिकार होना पड़ा। आंध्र, उड़ीसा, बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से इसका सबूत हैं।“

”एक बात है कि जाने कहां से इनके पास पुलिस से बेहतर हथियार पहुंच जाते हैं? और उन हथियारों से नरसंहार के साथ पुलिस वाले भी छेदे जाते हैं। मगर न नेता बदले हैं और न व्यापारी, जो उनका शोषण करते हैं। हर व्यक्ति कमाई में लगा है। जनजातियों का विकास पर से इसलिए विश्वास उठा क्योंकि विकास की हर सुविधा दूसरों को पहुंचती रही। उनकी नैसर्गिकता पर लोग हंसते, उनकी कम ज़रूरतों को उनका अज्ञान माना गया और उनकी औरतों का शोषण किसने नहीं किया, दलित भी पीछे नहीं रहे?“
-इसी पुस्तक से

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