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कवि ने कहा: विष्णु खरे / Kavi Ne Kaha : Vishnu Khare

150.00 127.50

ISBN : 978-81-89859-85-5
Edition: 2008
Pages: 148
Language: Hindi
Format: Hardback


Author : Vishnu Khare

Category:
कवि ने कहा: विष्णु खरे
मैंने जब विष्णु खरे की कविताओं को यह जानने के उद्देश्य से पढ़ना शुरू किया कि उनकी कविता का संसार किन तत्त्वों से बना है तो मुझे अत्यंत स्फूर्तिदायक अनुभव हुआ। एक के बाद एक काफ़ी दूर तक मुझे ऐसी कविताएँ मिलती रहीं जिन्होंने मुझे समकालीन जीवन के त्रासद से लेकर सुखद अनुभव तक से प्रकंपित किया। सबसे अधिक कविताएँ सांप्रदायिकता और फ़ासिस्ट मनोवृत्ति के जोर पकड़ते जाने को लेकर लिखी गई हैं। ‘शिविर में शिशु’ गुजरात के दंगे से संबंधित है, ‘चुनौती’ शीर्षक कविता में धर्म-भावना के ख़तरनाक रूप का संकेत है, ‘न हन्यते’ में दंगाइयों का रोंगटे खड़े कर देने वाला बयान है, ‘गुंग महल’ भी धार्मिक कट्टरता को ही सामने लाती है और ‘हिटलर की वापसी’ शीर्षक कविता जर्मनी की पृष्ठभूमि में लिखी गई है। विष्णु खरे की ख़ूबी है कि उनकी कविताएँ अधिकांश वामपंथी कवियों की तरह सिर्फ़ जज़्बे का इज़हार नहीं करतीं बल्कि अपने साथ सोच को भी लेकर चलती हैं, जिससे उनमें स्थिति की जटिलता का चित्राण होता है और वे सपाट नहीं रह जातीं।…
विष्णु खरे की असली कला और उनका तेवर ‘गुंग महल’ शीर्षक कविता में दिखलाई पड़ता है, जिसका अंत जितना ही सशक्त है उतना ही कलात्मक–पाठकों को अनुभूति, सोच और कल्पना तीनों ही स्तर पर उत्तेजित करने वाला। ‘विनाशग्रस्त इलाके से एक सीधी टी.वी. रपट’ कविता में टी.वी. रपट शैली में अनुमानतः गुजरात के भूकंप का ज़िक्र है। अंतर्वस्तु की दृष्टि से इसमें भारत के नैतिक विनाश का ऐसा चित्रण है कि एक बार तो यह प्रतीति होती है कि विष्णु खरे हमारे नैतिक विनाश के ही कवि हैं।…
विष्णु खरे का गहरा लगाव इस देश की साधारण जनता और साधारण जीवन से है, जिसे वे आधुनिक सभ्यता के बड़े परिप्रेक्ष्य में भी रखकर देखते हैं।…इन्हीं साधारण जनों में औरतों को भी गिनना चाहिए। आकस्मिक नहीं कि इस संग्रह में औरतों पर भी तीन-चार बहुत अच्छी कविताएँ हैं। विष्णु खरे का यथार्थ चित्रण इतना गहरा होता है कि उन्हें फैंटेसी में लिखने की कोई जरूरत नहीं। उन्होंने उस गद्य को आवश्यकतानुसार अनेक रूप प्रदान करके उसे ऐसा बना दिया है कि किसी काव्य और कला-मर्मज्ञ को उससे कोई शिकायत न हो।
–नंदकिशोर नवल
(‘अर्थ-भार से तनकर…’ ‘कविता: पहचान का संकट’ से)
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