Description
जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है
प्रेम कविता पर विचार करते हुए हमारे सामने सदियों की प्रेम कविता की परंपरा सम्मुख आ खड़ी होती है। एक आधुनिक कवि के लेखे तो वह जैसे ’स्थायी कवि समय’ ही रहा है। किंतु प्रेम की इस अनुभूति को शब्दबद्ध कर पाना सदैव कवियों के लिए चुनौती रहा है। प्रेम कविता का अधिकांश दैहिक मिलन और उसके बखान में अतिरंजित है। जबकि प्रेम के बीज तो प्रकृति में ही छितरे-बिखरे होते हैं; वही प्रेम करना सिखाती है। इसलिए मिलन की परिणति से गुजरना ही प्रेम नहीं है। यह मिलन, विरह, उत्कंठा, प्रतीक्षा, पीड़ा, अनुभूति, विकलता और उम्मीद का दूसरा नाम है। प्रेम का अनुभव देह होते हुए भी विदेह होने में है, भोगे जाते हुए या भोगते हुए भी अभुक्त होने में है, उस उदात्तता, प्रांजलता और सात्त्विकता को बचा लेने में है जो देहाभिभूत होते हुए भी अक्षुण्ण रहती है।
हमारे समय की बड़ी प्रेम कविताओं के नेपथ्य में करुणा का आवेग भी कहीं न कहीं दिखता है क्योंकि कविता प्रेम के नेपथ्य में रची-बसी करुणा तक पहुँचती है। प्रेम में कुंठा नहीं, निर्बंधता होती है। इसलिए अच्छी प्रेम कविता हमें खोलती है, मुक्त करती है, भौतिकता से पार ले जाने में मदद करती है। यह सुखद है कि आधुनिक हिंदी कविता प्रेम कविता की तमाम खूबियों का एक साथ वहन कर रही है। उसमें देह का संगीत भी है, आत्मिक सुख की निर्झरिणी भी। इसमें बहते हुए स्नेह-निर्झर को समेटने की शक्ति है तथा मुनष्य को प्रेयस् की अक्षुण्ण रासायनिकी से ओतप्रोत करने की ऊर्जा भी। प्रेम का क्षितिज उदात्त होता है तभी कोई कवि ’कनुप्रिया’ या ’गुनाह का गीत’ (धर्मवीर भारती) लिखता है, कोई ’टूटी हुई बिखरी हुई’ (शमशेर),’हे मेरी तुम’ (केदारनाथ अग्रवाल), ’देह का संगीत’ (सर्वेश्वर), ’नख-शिख’ (अज्ञेय), ’हरा जंगल’ (कुँवर नारायण), ’वह शतरूपा’ (लीलाधर जगूड़ी), ’उसके लिए शब्द’ (अशोक वाजपेयी) और ’ट्राम में एक याद’ (ज्ञानेन्द्रपति) आदि।
अज्ञेय प्रेम कविता की लंबी परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कवियों में हैं। वे प्रेम को दो मानव इकाइयों के मिलन के रूप में नहीं, बल्कि ईश्वर के दो अंशों के पारस्परिक मिलन के रूप में देखते हैं। उनकी कविता में भाषा, कथ्य और भाव का जैसा क्लासिकी संयम और अनुशासन है, वैसा ही उनकी प्रेम कविताओं में लक्षित होता है। कदाचित् उन्हें देना श्रेयस्कर लगता है, इसलिए प्रेम में भी लेना उन्हें गवारा नहीं। उनके लेखे प्रेम लेने का नाम नहीं, देने का नाम है। देकर ही मानो पाने का अहसास गहरा होता है। इसे बेशक दाता का दर्प कहें, पर अज्ञेय के प्यार में देने का भाव है, आशीषों का स्वस्तिवाचन है, पथ बुहारने- सँवारने का उद्यम है और प्रिय को दुःख की गलियों में नहीं, स्नेह-सिक्त वीथियों, सरणियों में देखने की कामना निहित है। शायद यही वजह है कि एक बार जब मैंने उनसे एक लंबी बातचीत के बाद उनकी सर्वाधिक प्रिय कविता की पंक्तियों के लिए अपनी डायरी बढ़ाई तो उन्होंने यही लिखा ‘जियो उस प्यार में जो मंैने तुम्हें दिया है।‘
यह संग्रह अज्ञेय की श्रेष्ठ प्रेम कविताओं का एक गुलदस्ता है।
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