Description
बदलते समय के साथ वैचारिक मुठभेड़ करता हुआ यह उपन्यास, पाठकों को एक ऐसी दुनिया से रूबरू कराता है जो उसे चौंकाती है कि ये पात्र, ये परिवेश उसके लिए अपरिचित तो नहीं थे मगर वे उसे उस तरह से पहचान क्यों नहीं पाए? देवेन त्रिपाठी को मिली डायरी की तरह ही हमारी जिंदगी की किताब भी अनेक प्रकार के कोड्स से भरी है जिसे हम अपनी-अपनी तरह से डिकोड करते हैं। एक ही दुनिया हर किसी को अलग-अलग तरह से दिखाई पड़ती है। इसीलिए उसे जानने और समझने का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता। स्कूल-कॉलेज की जिंदगी के बीच पनपते अबोध प्रेम की मासूमियत को चित्रित करता यह उपन्यास जब उसमें हो रही सौदेबाजी का चित्रण करता है तब सारा तिलिस्म टूट जाता है और उस परदानशीन जिंदगी की तस्वीरें साफ होने लगती हैं जिन्हें देखने के लिए माइक्रोस्कोपिक निगाह की दरकार होती है।
आज ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है जो जीवन का भरपूर आनंद उठाने के क्रम में भटकाव का शिकार हो ‘शॉर्ट लिव्ड मल्टीपल रिलेशनशिप्स’ की ओर जाने लगे हैं। ऐसे संबंध सतही तौर पर भले ही उन्हें संतुष्ट कर दें मगर अहसास के स्तर पर उनके पास सिवाय अकेलेपन के और कुछ नहीं बचता!
सवाल यह है कि अगर दैहिक सुख के बिना प्रेम अधूरा है तो क्या यौन सुख पा लेने से ही प्रेम की प्राप्ति हो जाती है? क्या स्त्री के लिए इस सुख की कामना करना अपराध है? सवाल यह भी है कि महज गर्भ धारण न करने से ही स्त्री की यौन-शुचिता प्रमाणित हो जाती है तो पुरुष की शुचिता कैसे प्रमाणित की जाए? पैसों की खातिर यौन सुख देने वाली स्त्रियां अगर वेश्याएं हैं तो स्त्रियों को काम-संतुष्टि बेचने वाले पुरुषों को कौन सी संज्ञा दी जाए?
यह उपन्यास महिलाओं की काम-भावना की स्वीकृति का प्रश्न तो उठाता ही है, स्त्री-पुरुष की यौन-शुचिता को बराबरी पर विश्लेषित करने की मांग करते हुए मेल प्रॉस्टीट्यूशन से जुड़े पहलुओं पर भी शोधपरक चिंतन प्रस्तुत करता है।
यह निम्नतम से उच्चतम की एक ऐसी यात्र है जो व्यक्ति को सही मायने में चैतन्य करती है और चैतन्य होना ही ‘बुद्धत्व’ अथवा ‘महामानव’ की ओर बढ़ने का वास्तविक प्रयाण है। यही कारण है कि उपन्यास अपने चरम तक पहुंचकर भी ठहरता नहीं बल्कि बदलते सरोकारों पर नए सिरे से सोचने का आह्नान करता है कि इसे फिर से पढ़ो, फिर से गढ़ो।