Description
स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास का वह एक ऐसा कालखंड था, जब निकट अतीत की व्यक्तिवादी, भ्रष्ट एवं सर्वसत्तावादी निरंकुश प्रवृत्तियाँ चरम पर पहुँच गई थीं और लोकतंत्र आधी रात को किसी भी दरवाजे पर पड़ने वाली दस्तक के आतंक से सहमा हुआ था। उस दौर में कुछ आवाजें बिना बोले भी बहुत कुछ कह रही थीं। …और कैसे जी रहा था देश का आम आदमी ? …वह आम आदमी, जो देश के विभाजन की भयावह स्मृतियाँ लिए द्विभाजित मानसिकता में जीने को अभिशप्त था। …और वह आम आदमी, जो पाश्चात्य देशों को स्वर्ग मान बैठा था। महाकाव्यात्मक आयाम लिए उस कालखंड के भारतीय समाज की कथा, जिसमें इतिहास के साथ-साथ भविष्यदृष्टि भी विद्यमान है।
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