Description
कहते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’। और ये सत्य विभिन्न
माध्यमों द्वारा बताया या दर्शाया जाता भी रहा है। परंतु युग बदले, समय
बदला और आधुनिक समाज में नारी के बदलते स्थान को या यों कहें
कि बढ़ते सम्मान को लेकर अनेक दावे भी पेश आने लगे मसलन उन्हें
प्राप्त कानूनी अधिकार, विभिन्न क्षेत्रें में उनको मिलते अवसर, उन्हें प्राप्त
विशेष अधिकार-सहूलियतें! और भी न जाने क्या-क्या! ये सब स्त्री-विमर्श,
उच्च-मध्यम शिक्षित वर्ग पर लागू होता भी होगा पर निम्न वर्ग के लिए आज
भी ‘दूर की कौड़ी’ से कम नहीं हैं। ये सब मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि
मैंने अनुभव किया है कि आज 21वीं सदी में भी नहीं बदली है महिलाओं
के घर-परिवारों और उनके आसपास के समाज की सोच! जिसने उसके
मन-मस्तिष्क को अदृश्य जंजीरों में बड़ी ही एहतियात से जकड़ कर रऽा है।
कुछ अपवादों को छोड़कर देऽें तो आज भी वह एक ‘निश्चित घेरे’ के भीतर
ही सोचती और जीती है। अपनी समस्याओं का अलग समाधान वह सोचे भी
तो कैसे जबकि ‘आउट ऑफ द बॉक्स’ सोचने की शक्ति समाज की संकीर्ण
सोच और रूढ़िवादी परंपराओं ने उसे दी ही नहीं और यही कटु सत्य है।
कथाएँ कहने-सुनने की शुरुआत कहाँ से और कब से हुई इसका प्रमाण
शायद ही हो पर कहानी के माध्यम से घटनाओं, अनुभवों और कल्पनाओं को
मूर्त रूप देते हुए लिऽना (या कहना) एक बेहद शानदार और प्रभावशाली
तरीका जरूर है। मैंने अपने लेऽन में बेहद सरल भाषा का उपयोग किया है जिसका एकमात्र कारण है कि कहानियों को प्रत्येक वर्ग द्वारा आसानी से
ग्राह्य कर सकना। मेरी कहानियाँ भले ही आज के पाठकों को आउटडेटेड
लगें या इनका कथानक पुराना लगे पर यकीन मानिए, ये सब रोज इसी समय
और इसी समाज में घट रहा है। बस हमारा ध्यान नहीं जा रहा या फिर हम
संवेदनहीन होते जा रहे हैं!
मेरी कहानियाँ समाज के इन्हीं वर्गों की स्थिति को दर्शाती हैं-‘नियति’
कथा की नायिका उच्च शिक्षित ही नहीं वरन सरकारी महकमे में उच्च पद
पर आसीन होने पर भी समाज की रूढ़िवादी सोच के कारण नाकारा, गुणहीन,
बेरोजगार पुरुष से सिर्फ इसलिए ब्याह दी गई क्योंकि वह उच्चकुलीन था।
नारी-मुक्ति को लेकर न जाने कितनी चर्चाएँ हुई होंगी-उन पर व्यंग्य कसती
हैं-‘इंतजार’ और ‘एकाकी भाभी’ की नायिकाएँ। वहीं समाज में वर्तमान
समय में भी ‘दहेज’ की चिंता से ग्रस्त ‘बेटी का ब्याह’ के किसान दंपती
की व्यथा तथा कहानी ‘टूटा स्वप्न’ की नायिका की विवशता को हम आज
भी अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। बच्चों के बाल मनोविज्ञान को
इंगित करती तथा उनके प्रति संवेदनशीलता जाग्रत करती कथाओं में ‘अम्मू’,
‘बेपरवाह बच्ची’, ‘पाऽी’ और ‘अबोध’ के नायक बच्चे पाठकों के मन को
उद्वेलित अवश्य करते हैं।
‘आमा’ तथा ‘अकेली’ की नायिकाएँ जहाँ अकेलेपन को जीने के लिए
किसी मकसद को तलाशती हैं, वहीं ‘सुनहरा रंग’ तथा ‘परमिशन’ की
नायिकाएँ जीवन में अकेलेपन के अवसाद से जूझती हैं। सभी कहानियाँ
कठोर यथार्थ के धरातल पर टिकी हुई कहीं न कहीं सत्य घटनाओं से प्रेरित
हैं यही कारण है कि इन्हें तराशते हुए इनकी संवेदनाओं से मन गहराई से
जुड़ाव महसूस करता है।