Description
सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल अपने समय से निरंतर एक गंभीर संवाद करते रहे।उनके आलोचनात्मक निबंधों की संग्रहणीय पुस्तक समकालीन साहित्य विमर्श इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहां वह हिंदी नवजागरण से जुड़ी प्रश्नाकुलताओं और समस्याओं पर तो विचार करते ही हैं, भूमंडलीकरण, बाजारवाद और साहित्य के साथ इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में हिंदी साहित्य की संभावना पर भी विमर्श करते हैं। अपने निबंधों की विषय वस्तु की दृष्टि से यह पुस्तक अनूठी इसलिए भी है कि यहां हिंदी कविता के पचास वर्ष, समकालीन हिंदी कविता में आत्म संघर्ष, समकालीन काव्य की मनोभूमि, कामायनी : सर्वाधिक विवादास्पद कृति और गजानन माधव मुक्तिबोध का कविता संसार भी सहजता से खोला व समझा गया है। डॉ. पालीवाल कवियों के कथा साहित्य के साथ ही कथाकारों की कविता पर गंभीरता पूर्वक विचार करते हुए, राम विलास शर्मा में संस्कृति, समाज और विरासत का नया पाठ देखते हैं तो साम्राज्यवाद विरोध के संदर्भ में आलोचना व डॉ. राम विलास शर्मा पर भी विचार करते हैं।लोक और शास्त्र के अंतः पाठ के बहाने वह बहुत कुछ नया खोजते हैं तो यह प्रश्न भी बखूबी उठाते हैं कि आलोचना की तीसरी आंखनदारद क्यों है ? अच्छी बात यह है कि पालीवाल जी खला विमर्श करते हैं किसी वाद के खूटे से नहीं बंधते।