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राधिका मोहन / Radhika Mohan

195.00 165.75

ISBN : 978-81-88588-26-8
Edition: 2009
Pages: 158
Language: Hindi
Format: Hardback


Author : Manorama Jafa

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Category:

Description

राधिका मोहन
असमंजस में पड़े राधिका मोहन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें ? एक तरफ प्रेमिका अलबा थी, तो दूसरी तरफ उनकी पत्नी सविता। कुछ भी समझ में नहीं आया तो दोनों की तुलना करने लगे :
‘अलबा तन से तो परी है और सविता…उँह-उँह…कोई तुलना! अब रही खाने-पीने की…अलबा तो साथ में बैठकर बीयर पी लेती है। एक सविता जी हैं कि उनके मिज़ाज ही नहीं मिलते। यह व्रत, वह व्रत, और आज शाकाहारी खाने का दिन है वग़ैरह-वग़ैरह…और अपने करोड़ों देवी-देवता! बस, जिंदगी-भर उनके पीछे भागते रहो। पागलपन ही है। रही अलबा, उसको किसी चीज़ से कोई भी परहेज़ नहीं है। हमारी ये घरेलू लड़कियाँ पति को परमेश्वर मानकर लग गईं पति के पीछे पूँछ की तरह। बस, उन्हें बेमतलब की बातों पर रोना आता है। अगर कोई लिपट जाए, चुंबन दे दे तो क्या उसे धक्का दे दें ? और इनके पास जाओ तो कहेंगी, ‘क्या करते हो ?’ यह भी कोई बात हुई! आख़िर मैं ठहरा मर्द। भगवान् ने अपने हाथों से हमें रचा है। देखो ज़रा कृष्ण भगवान् को। जिस गोपी को चाहते थे, उसी के साथ हो लेते थे। वाह, क्या लाइफ़ थी उनकी! राधा-वाधा उन्हीं के पीछे भागीं और उनकी ब्याहता रुक्मिणी ने कृष्ण से कभी कोई प्रश्न नहीं किया। काश! मैं भी कृष्ण सरीखा होता। तो क्या हूँ नहीं ?’ राधिका मोहन ने अपनी शक्ल फिर शीशे में देखी। चेहरे पर मक्खी मूँछ थी। उन्होंने दोनों हाथों से दो बाल पकड़कर गर्व से ऐंठ लिए, ‘आख़िर हूँ तो मर्द ही। सारे धर्मों का रचयिता और सारे कर्मों का रचयिता। मनु की संतान।’
[इसी पुस्तक से]

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