Description
सभी घरों को परदा चाहिए!
‘परदा बाड़ी’ को भी, जो स्वयं में एक प्रतिष्ठित घर या फिर कुछ जर्जर दीवारों का नाम है।
जानी-मानी साहित्यकार कुसुम कुमार द्वारा लिखा उनका यह सामाजिक उपन्यास अपने में एक कथा व उसके अनेक मोड़ों के साथ-साथ इतिहास की साझेदारियों को भी आत्मसात् किए चलता है।
मूल कहानी में प्रेम का संदेश है किंतु घर में किसी दुर्घटना की तरह अयाचित विमाता का प्रवेश लगभग सभी पात्रों की अंदरूनी आग को भड़काने वाला; परत दर परत प्रत्येक घाव पर से परदा हटाते चलने के अतिरिक्त विद्रोह-वाणी का जन्मदाता सिद्ध होता है। एक ही घर में गुटबाजी बड़े सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक तंतुओं से बुनी पेशतर है।
आपसी रिश्तों में कहीं उदासीनता तो कहीं आमना-सामना; कहीं फिसलना तो कहीं नाजुक फैसलों पर भारी हमले जहां इस कथाकृति को आंतरिक वृहत्तरता प्रदान करते हैं वहीं कुछ चरित्रों को अतिमानव या लघुमानव होने से बचाते भी है।
प्रकृति का सौष्ठवपूर्ण मानवीकरण उपन्यास में उदात्त की सृष्टि के साथ-साथ लेखिका की विशिष्ट शैली को उद्भासित करते हैं।
देश-काल की दृष्टि से यहां नए-पुराने का समन्वय सामंजस्य विषयवस्तु को विचारणीय बनाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो समाज स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद अभी पूरी तरह रचा नहीं गया था उसे इसके पात्र अपने निर्णयों, अनुभवों, गतिशीलता से रच रहे हैं। ये सभी चरित्र अत्यंत चेतना-संपन्न हैं। सभी में अन-आए को स्वीकार-अस्वीकार करने की क्षमता है।
कक्षा के अंत में एक भावनात्मक पर्यावरण की सृष्टि होती है जिसमें फासले कम करने तथा आपसी समझ के उजास कण स्पष्ट दीख पड़ते हैं।
कुसुम जी ने अपनी चिर-परिचित दिल्ली और उसमें भी दरियागंज को केंद्र में रखकर खासे व्यापक फलक पर ‘परदा बाड़ी’ को प्रक्षेपित किया है जिसका समाजेतिहास सचमुच बांधने वाला है।
वर्षों की तैयारी और श्रम से लिखा यह उपन्यास कुसुम जी की अन्य सब रचनाओं की तरह ही प्रथमतः अनिवार्यतः मानवीय है जिसकी धुरी प्रेम है।