‘पानी का पंचनामा’ मेरा दूसरा उपन्यास है। पहले उपन्यास ‘कोचिंग/कोटा’ की जमीन से पूरी तरह अलग, अपनी ही जमीन को खुरदुरा बनाने में जुटी व्यवस्था की सच्चाइयों से पर्दा हटाता, उसका चित्रण करता। असंगत हो चली ऐसी ही व्यवस्था का रोजनामचा है यह उपन्यास। जब हम किसी कथानक को उपन्यास का नाम देते हैं तो उसमें जिंदगी, समाज और व्यवस्था के अनेक आयाम चित्रित होते हैं, वर्तमान परिवेश और परिस्थितियों की झलक उसमें दिखाई देती है, मानवीय व्यवहार और आचरण की तस्वीर को उसमें देखा जा सकता है। ‘पानी का पंचनामा’ भी इससे अलग नहीं है। जल विभाग की विसंगतियाँ इसके केंद्र में हैं, लेकिन इसका केंद्रीय पात्र अपने नाम में ही विसंगति तलाशकर आत्मग्लानि से भरा हुआ है। आत्मग्लानि से भरा यही व्यक्ति तमाम तरह की विभागीय जटिलताओं और विसंगतियों का जनक भी है। वह समाज के आम आदमी का प्रतिनिधित्व तो नहीं करता, लेकिन व्यवस्था में ऐसे कई चेहरे दिखाई देते हैं जो उसका प्रतिरूप होते हैं, हालाँकि यह एक काल्पनिक पात्र है लेकिन क्या सच में यह कल्पना है, पाठक निर्णय करें तो बेहतर होगा।
मैं ‘पानी का पंचनामा’ को व्यंग्य उपन्यास कहना नहीं चाहता। मैं इसे एक ऐसा उपन्यास मानता हूँ जिसमें परिस्थितिजन्य एवं प्रसंगानुकूल व्यंग्य मौजूद है। व्यंग्य की सूक्ष्मता, घटनाओं और संवादों में महसूस की जा सकती है। उदाहरणस्वरूप इस वाक्य को देखा जा सकता है-‘इन नलकूपों में से लाखों लीटर पानी भी निकाला जा चुका था, किंतु उन्हें नहाने लायक एक बाल्टी पानी भी नसीब नहीं हुआ था। वह पानी को मनमाफिक उलीचने का सपना लेकर विभाग में आए थे, लेकिन सपना था कि सच होने का नाम नहीं ले रहा था।’ मेरे ‘पानी का पंचनामा’ को व्यंग्य उपन्यास कहते ही लोग इसकी तुलना ‘राग दरबारी’, ‘नरक यात्र’ या ‘पाँच एब्सर्ड उपन्यास’ से करने लगेंगे, हालाँकि राग दरबारी को भी आलोचकों ने नहीं बख्शा था। नेमिचंद जैन और श्रीपत राय जैसे आलोचकों ने राग दरबारी को ‘असंतोष का खटराग’ तथा ‘महाऊब का महाग्रंथ’ तक कहा था। आलोचक तुलना करें, बेशक करें, इससे मुझे आपत्ति नहीं है, लेकिन बिना पढ़े खारिज कर दिए जाने की चिंता अवश्य है। जब लेखक कोई भी उपन्यास रचता है (लिखता नहीं) तो वह स्वयं ही अपने लिखे को अनेक बार खारिज करते हुए आगे बढ़ता है। किसी भी उपन्यास का आधार उसके खारिज होते रहने पर ही टिका होता है, लेकिन एक मजबूत इमारत बन जाने के बाद उसमें गृह प्रवेश किए बिना ही, उस इमारत को खारिज कर देने की मानसिकता चिंतित करती है।
व्यंग्य साहित्य का एक ऐसा स्वरूप है जो हमारे समाज की विद्रूपताओं, विरोधाभासों और विडंबनाओं को माइक्रोस्कोपिक जाँच के उपरांत एक रचनात्मक रूप में प्रस्तुत करता है ताकि पाठक उसमें अपने समय के समाज के सच को अनावृत होते देख सके और सोचने के नए आयाम पा सके। व्यंग्य साहित्य का ऐसा आईना है जिसमें सच के छिप जाने की गुंजाइश नहीं होती। पाठक की चेतना को झकझोरने की शक्ति इसमें निहित होती है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश है ‘पानी का पंचनामा’, जो मंगल प्रदेश के जल विभाग की कार्यशैली में रच-बस गई विभिन्न विसंगतियों और कारगुजारियों की पड़ताल भी करता है और उन पर चोट भी करता है। यह अफसरी निरंकुशता, अधीनस्थों की मजबूरी, राजनीतिक रसूखदारों द्वारा ब्लैकमेलिंग, नेतागिरी के हथकंडों, अपनों को बचाने की कुटिलता, नियम से काम करनेवालों को फँसाने के षड्यंत्र, दैहिक और मानसिक शोषण, झूठ, फरेब, चापलूसी, चुगलखोरी और पश्चाताप जैसी अनेक संस्थागत बुराइयों को उजागर करता है। यह उपन्यास आपको ऐसे सच से रूबरू कराएगा जिसके बारे में कम ही लिखा गया है, या लिखा भी गया है तो इस कोण से देखते हुए नहीं लिखा गया है।
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Paani Ka Panchnama
₹350.00 ₹295.00
ISBN: 978-93-93014-22-1
Edition: 2024
Pages: 176
Language: Hindi
Format: Paperback
Author : Arun Arnav Khare