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NISHANT KA KOHRA GHANA / निशांत का कोहरा घना

800.00 595.00

ISBN: 978-93-93486-09-7
Edition: 2022
Pages: 392
Language: Hindi
Format: Hardback

Author : Kamlakant Tripahi

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Description

निशांत का कोहरा घना
हिंसा और अहिंसा के बीच झूलता 1942 का आंदोलन 1857 की क्रांति के बाद भारतीय स्वातं=य चेतना की सबसे जीवंत अभिव्यक्ति है। जनमानस को इसने इस कदर आलोडित किया कि देश की कालातीत जातीय स्मृति का जैविक अंग बन गया। ‘निशांत का कोहरा घना’ इस आंदोलन में सक्रिय भूमिगत, छापामार क्रांतिकारियों के एक संगठित समूह की अंतर्कथा है जो सूक्ष्म और व्यापक के समाहार से राष्ट्रीय जीवन की जमीनी सच्चाई का एक सृजनात्मक पाठ रचती है। आंदोलन की मुख्यधारा के अंतर्विरोधों, सत्ताकामी अभिप्रेतों और विचलनों के प्रतिरोध में खड़े प्रगतिशील, निःस्वार्थ और अग्रदर्शी चरित्रें के धूमिल दस्तावेज की पुनर्रचना का एक निष्ठावान प्रयास भी। उपन्यास मानव-मन के उन अँधेरे कोनों की पड़ताल भी करता है जो कल, आज और कल के बीच स्थायी सूत्र बनाते, हमारी समेकित प्रगति के मार्ग में काँटे बने हुए हैं।
सन् 42 का एक अनपेक्षित और अवांछित हासिल भी था। कांग्रेस नेताओं के जेल में बंद हो जाने और कांग्रेस दल के निषिद्ध हो जाने से बने राजनीतिक शून्य में सांप्रदायिक ताकतों को राष्ट्रीय अस्मिता के मूल्य पर खुला खेल खेलने का मौका मिल गया। उसी के चलते अंततः देश का अतार्किक, त्रसद और रक्तरंजित विभाजन हुआ। एक पाकिस्तान जमीन पर बना और उससे बड़ा पाकिस्तान लोगों के दिल में बना और दोनों की कशमकश से इस बेनसीब उपमहाद्वीप की आबोहवा में दीर्घकाल के लिए सांप्रदायिकता का जहर घुल गया, जिसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं। विडंबना ही है कि इस अवांछित को समझने और अंतिम क्षण तक इसके विरुद्ध संघर्ष में सन्नद्ध, अग्रदर्शी क्रांतिकारियों के लिए हमारी इतिहास-भूमि बंजर है। इन क्रांतिकारियों को केंद्र में रखकर ‘निशांत का कोहरा घना’ इतिहास के उस बंजर में रचनात्मकता की फसल उगाता है। लेखक के पूर्व-प्रकाशित उपन्यास ‘तरंग’ के कथा-विधान की निरंतरता में, उसकी आगे की कड़ी के रूप में, यह स्वातंत्र्य-पूर्व के उस कुहासे को भेदने का उपक्रम है जिसके आवरण में जन-विरोधी और देश-विरोधी ताकतों ने विखंडन के विष-वृक्ष के लिए खाद-पानी जुटाया था।
जौनपुर की क्रांतिकथा के नायक राजनारायण मिश्र और उनके दस क्रांतिकारी साथियों के आत्मोत्सर्ग को एक आत्मीय श्रद्धांजलि भी है यह उपन्यास। सतारा में समांतर सरकारों के प्रणेता क्रांतिवीर नाना रामचंद्र पाटिल, उनके सहकर्मी अच्युत पटवर्धन और औंध रियासत के युवराज अप्पा साहब की मौलिक सूझबूझ और दीर्घजीवी क्रांतिचेतना का एक विश्वसनीय और खोजपरक आख्यान भी रचता है उपन्यास।

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