Description
1930-1960 तक से समय को जॉन हॉलावे ने ‘साहित्यिक आलोचना में क्रांति’ का युग कहा है। कहना न होगा कि इस समय की सबसे महत्त्वपूर्ण और समृद्ध आलोचनात्मक प्रवृत्ति नयी समीक्षा है। प्रवृत्ति विशेष के लिए यह नाम 1941 में प्रकाशित जॉन क्रो रैंसम की इसी शीर्षक की रचना से रूढ़ हुआ।य् प्रस्तुत पुस्तक ‘नयी समीक्षा के प्रतिमान’ की संपादक सुप्रसिद्ध आलोचक निर्मला जैन ने भूमिका के इन शब्दों में उस समीक्षा पद्धति का उल्लेख किया जिसने विश्व-साहित्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। रचना और आलोचना के अंतःकरण को संशोधित / परिवर्तित करने में ‘नयी समीक्षा’ के सूत्रें व समीकरणों ने ऐतिहासिक कार्य किया। दोनों विश्वयुद्धों के बीच का समय नयी समीक्षा के प्रारंभ, विकास और सिमटाव का भी समय है।
नयी समीक्षा के अंतर्गत स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति समूह और विक्टोरियन साहित्य की नैतिकता के प्रति विरोध दर्ज हुआ। इससे जुड़े समीक्षक कविता के अधिक शुद्ध मूल्यांकन के लिए उसको ऐतिहासिक सामाजिक विवरणों व रचनाकार की निजता से काट देना उचित समझते थे। इससे विश्लेषण का क्षेत्र रूपात्मक विलक्षणताओं तक सीमिति हो गया।
हर आरोह का एक अवरोह होता है। ‘नयी समीक्षा’ की सीमाएं 1950 के आसपास उभरने लगीं। निर्मला जैन के शब्दों में, फ्नयी समीक्षा की सभी महत्त्वपूर्ण कृतियां पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं और आलोचक जैसे अपने ऐतिहासिक दायित्व को पूरा कर विराम की मुद्रा में थे। आलोचना का एक प्रमुख दौर, एक विशेष युग मानो समाप्त हो गया था।य्
प्रस्तुत पुस्तक इस महत्त्वपूर्ण आलोचना युग की उल्लेखनीय विशेषताओं को मूल रचनाओं के अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराती है। रेने वेलेक, क्लींथ ब्रुक्स, आइवर विन्टर्स,
टी- एस- इलियट, आई- ए- रिचर्ड्स, ऐलन टेट और डब्ल्यू- के- विमसाट के लेखों का अनुवाद अजितकुमार, निर्मला जैन व चंचल चौहान ने किया है। अपने ढब की अकेली पुस्तक, जिसमें जाने कितनी बहसों के प्रस्थान अंतर्निहित हैं। पाठकों की सुविधा के लिए दो परिशिष्टों में हिंदी-अंग्रेजी और अंग्रेजी-हिंदी शब्दावली भी दी गई है।
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