Description
अनेक उल्लेखनीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ लेखक गोविन्द मिश्र का रचना-संसार व्यापक और बहुआयामी है। उनका कथा-साहित्य मानवीय मूल्यों को विश्लेषित करते हुए परंपरा और प्रगति को एक नया अर्थ देता है। सामान्य जीवन, व्यवस्था, राजनीति और सामाजिक द्वंद्व को उसकी मूल चेतना के साथ समझते हुए उन्होंने अद्भुत कहानियों व उपन्यासों की रचना की। ऐसे महत्त्वपूर्ण रचनाकार की रचनाओं का मर्म कई बार उनके साक्षात्कारों में भी खुलता है। इस दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक बेहद ज़रूरी और पठनीय है। कई बार हम ‘क्रिएटिव’ लेखक से विभिन्न विषयों पर उसके विचार जानना चाहते हैं, विषय साहित्य भी हो सकता है साहित्येतर भी। जानने के क्रम में किया गया संवाद साक्षात्कार नामक विधा को समृद्ध करने के साथ रचनाकार के व्यक्तित्व-कृतित्व को भी नए सिरे से प्रकाशित करता है। इस पुस्तक में उपस्थित साक्षात्कारों को पढ़ते हुए पाठक पाएंगे कि गोविन्द मिश्र का चिंतक-विचारक रूप पर्याप्त ध्यानाकर्षक है।
एक प्रश्न के उत्तर में गोविन्द मिश्र कहते हैं, ‘एक और छोटी सी बात जोड़ दूं कि मेरा अधिकतर लेखन आत्मपरक है। पहले मैं यह कहने में संकोच करता था, पर जब मैंने एक जगह पढ़ा कि टाॅलस्टाॅय का लेखन भी अधिकतर आत्मपरक था तो मुझमें इस स्वीकारोक्ति के लिए साहस आया। सच यह है कि जो लेखन जितना आपके जीवन, आपकी गहन अनुभूतियों से उठेगा वह उतना ही प्रभावी होगा।’ तात्पर्य यह कि पूर्वनिर्मित धारणाओं का अनुगमन उन्होंने कभी नहीं किया, भले ही ‘प्रमाणपत्रा’ बांटने वाले उनकी रचनाओं को लेकर कई बार संशय में दिखे। गोविन्द मिश्र इस महादेश के जन-मनोविज्ञान को बखूबी समझते हैं।
ये साक्षात्कार रचनाकार के मनोविज्ञान को समझाते हुए साहित्य व समाज के बहुतेरे प्रश्नों से गुजरते हैं। यही कारण है कि ये व्यक्तिकेंद्रित होने से बच गए हैं। इनको पढ़ना यानी एक बड़े रचनाकार को समझने के साथ परंपरा, वर्तमान और सभ्यता के भविष्य का सामना करना है।