Description
वह कृत्य जिसे दुनिया ‘व्यभिचार’ और ‘विश्वासघात’ कहती है…वह कृत्य मेरे साथ उसने किया, जिसे मैंने प्यार दिया और जिसे मैंने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया था। दुर्भाग्य इस ‘व्यभिचार’ को हिस्सेदार बना वीरेन्द्र। लेकिन आज भी उस ‘विश्वासघात’ और ‘व्यभिचार’ का मेरे लिए महत्त्व नहीं है। सिर्फ शरीर की वासना को तृप्त करने की हवस को लेकर इस कृत्य को किया जाए तो शायद इसे ‘व्यभिचार’ कहा जा सकता है। लेकिन मानसिक सतह पर दो हृदयों का होने वाला भावात्मक मिलन और उस मिलन की चरम सीमा पर पहुंचकर होने वाला अटल शारीरिक व्यवहार-स्त्री और पुरुष के संबंधों में एक से अधिक व्यक्ति के साथ हो सकता है, यह आज की सामाजिक स्थिति में अमान्य की जाने वाली बात है…जिस व्यक्ति के साथ जीवन बंध गया है, उस व्यक्ति के साथ भावात्मक विश्वासघात न हो, इस बात की सूझ-बूझ जिंदा रहे, तब इस कृत्य में सचमुच कोई व्यभिचार हो रहा है, इसे चाहे आज का समाज माने, पर मैं नहीं मान पाता। …उसके लिए मैं मर चुका था। फर्क इतना ही था कि मरे हुए को श्मशान ले जाने की तैयारी दूसरे लोग करते हैं, मैं अपनी तैयारी खुद कर रहा था।
-इसी संग्रह की कहानी ‘दुःखों के रास्ते’ से