Description
किन्तु-परन्तु
कहाँ से चले, कहाँ ठिकाना है
न देखा आदि न अंत जाना है
हम न जान सके दुनिया को तो क्या
दुनिया ने कहाँ हमको पहचाना है
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प्रेम के नयनों ने मुझे आप निहारा
अभिसार के अधरों ने कई बार पुकारा
कब बांध के रखा किसी नाव को तट ने
हर नाव को लहरों ने दिया आप सहारा
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दूर हैं हमसे तो क्या हुआ अपने तो हैं
न हों ज़मीनी, हवाई सही, सपने तो हैं
भले ही कहानी उनकी बेवफाई की हो
बदनामी के वरक हमीं को ढकने तो हैं
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खुद साठ बरस के, दुल्हन बीस बरस की
यहाँ ये तरसते, वहां वो तरसती
जी तो चाहता है घटा झूम के बरसे
मगर हाल यह है, इक बूँद न बरसती
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सुचिता और व्यवस्था जोडे हाथ खड़ी
जैसे दोनों शासन की हो बाँदियाँ
मिल न सकी समता, वंचित जाग रहे
बहुत दिनो से नाच रही हैं आँधियाँ
०
शेष नहीं कुछ कहने को
शेष नहीं कुछ सहने को
मिट रहीं सब तीव्र गति से
कहने – सहने की सीमाएं