Description
रमेशचन्द्र शाह के डायरी-लेखन की पहली कृति ‘अकेला मेला’ में सन् 1981 से 1985 तक की प्रविष्टियाँ शामिल थी तो दूसरी कृति ‘इस खिड़की से’ 1986 से 2004 तक की डायरी को समाहित किए हुए थी। तीसरी ‘आज और अभी’ का फलक 2004 से 2009 तक पाँच वर्षों को अंतः प्रक्रियाओं को समेटे हुए है और, अब यह चौथी डायरी ‘जंगल जुही’ अद्यावधि और ‘अद्यतन’ को। इस डायरी में लेखक ने अपने प्राग और हैदराबाद प्रवास के अत्यंत रोचक और मूल्यवान् यात्रानुभवों को भी सहज ही स्वत:स्फूर्त ढंग से पिरो दिया है, जिनसे-पाठक पाएँगे कि-उनके अपने ही जिये और भोगे हुए में एक नया और अप्रत्याशित आयाम आ जुड़ा है।
जैसा कि एक सुधी समालोचक का मंतव्य है-“एक ही विधा में अनेक विधाओं का कायंतरण और अर्थांतस्या कैसे होता है, यह रमेशचन्द्र शाह की डायरियों को पढ़कर जाना जा सकता हैं।” यह भी कि-“एक सर्जक अपनी निर्विकार चेतना में कितना बहुविध हो जाता हैं। शाह की डायरी केवल तिथिक्रम में घटित जीवन-लीलाओं का बयान नहीं है, बल्कि भाव-विपुल सौंदर्य और अनुभूतियों में निहित मर्म का उदघाटन है। यहाँ दर्शन है-साहित्य की तरह; साहित्य है संस्मरणों की समृद्धि की तरह; संस्मरण है-जीवन के धड़कते हर पल की तरह डायरियाँ अनुभवों की जीवंत गाथाओं के समान होती हैँ।
वे कल्पना-प्रसूत कविता-कहानी न होकर भी अगर उन्हीं की तरह आंदोलित और आनंदित करती है तो मानना पड़ेगा कि डायरी-लेखक एक कल्पनाशील-विचारशील व्यक्ति के साथ भाषा- शिल्पज्ञ भी है।” शाह की डायरियाँ अर्थान्वेषण की गंभीरता के साथ-साथ आलोचनात्मक अंतर्दूष्टि, ‘विट’ और ‘ह्यूमर’ से भी परिपूर्ण होती हैं। पाठक देख सकते हैं कि उनकी काल-चेतना कितनी प्रखर, प्रबुद्ध और संवेदनशील है।
रमेशचन्द्र शाह की डायरी एक और रसिक मर्मज्ञ के शब्दों मे-“महज डायरी नहीं है; इसमें सही में साहित्य का वैश्वीकरण हो गया है, जिसने मनुष्य की बनाई सारी सरहदों को तोड़कर सारी धरती को अपना घर-कूटुंब मान लिया है।’ कुल मिलाकर शाह का डायरी-लेखन देश-काल की हदों को लाँघ हमें उस लेकि में ले जाता है जहाँ हम खुद को सच के आईने के सामने खड़ा पाते है, जहाँ अपने से बचना मुरिकल ही नहीं, नामुमकिन होता है।
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