Description
अरण्य-तंत्र
‘भारत का वह एक प्रान्त था, प्रान्त की वह राजधानी थी, राजधानी का वह क्लब था। देखें तो पूरा देख ही था…क्योंकि अफसर जो यहां आते थे, वे देश के कोने-कोने से थे।’…
‘ये जो खेल रहे हैं…आला सर्विस के हैं, बाहर और यहां खेल में भी वे स्टार हैं। यहां से जाकर कुर्सी पर बैठ जायेंगे, सरकार हो जायेंगे। सरकारी खाल ओढ़े बैठे। उस खोल के भीतर सब छिपा रहता है, जो यहां खेल में झलक जाता है क्योंकि खेल में भीतर की प्रवृत्तियां बाहर आये बिना नहीं रहतीं।
स्टार…जो ये खुद को लगाते हैं, या जंगल चर रहे जानवर, किसिम-किसिम के जानवर…ये क्या हैं…गधा सोच रहा था।’
प्रशासन के इस जंगल में हाथी, हिरन, ऊंट, घोड़ा, खच्चर, तेंदुआ, रीछ, बायसन, बन्दर तो हैं ही, बारहसींगा, नीलगाय और शिपांजी भी हैं। सबसे ऊपर है शेर-सीनियर। वह जाल भी खूब दिखाई देता है जो उनकी उछलकूद अनायास ही बुनती होती है। यह है ‘अरण्य-तंत्र’ गोविन्द मिश्र का ग्यारहवां उपन्यास, जिसमें वे जैसे अपनी रूढ़ि (अगर उसे रूढ़ि कहा जा सकता है तो) संवेदनात्मक गाम्भीर्य-को तोड़ व्यंग्य और खिलंदडे़पन पर उतर आये दिखते हैं। यहां यथार्थ को देखा गया है तो हास्य की खिड़की से। फिर भी ‘अरण्य-तंत्र’ न व्यंग्य है, न व्यंग्यात्मक उपन्यास। अपनी मंशा में यह लेखक के दूसरे उपन्यासों की तरह ही बेहद गम्भीर है।
‘बायीं तरफ की सिन्थैटिक कोर्ट-कोर्ट नं. 2 के ठीक ऊपर लाॅन के किनारे कभी दो बड़े पेड़ थे, जिनमें से एक पहली कोर्ट बनाने के लिए जो खुदाई हुई थी उसके दौरान बलि चढ़ गया। दायीं तरफ की कोर्ट-कोर्ट नं.1 के आखिरी छोर पर भी दो बड़े पेड़ थे-जुड़वां, एक हल्के गुलाबी रंग के फूलों वाला, एक हल्के बैगनी रंग के फूलों वाला। उनमें से एक कोर्ट नं.1 के तैयार होने के बाद शेर-सीनियर की सनक और सियार-पांड़े की चापलूसी में ढेर हो गया। तो बड़े पेड़ अब दो ही बचे थे…एक बस तरफ, एक उस तरफ…
दो वे पेड़ अलग-थलक पड़े, अकेले थे, उदास…भयभीत भी।’
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