Description
ममता किरण की ग़जलों में कथ्य का दायरा बहुत विस्तृत है, उनमें घर-परिवार से लेकर पूरी दुनिया शामिल है। कथ्य के बड़े दायरे के साथ-साथ, नयी-नयी उपमाओं, बिंबों और नयी कहन तथा आधुनिक संदर्भों का कुशलता से शे’रों में पिरोना भी उनका ग़जलगोई को विशिष्टता प्रदान करता है। वर्तमान दौर, व्यवस्था द्वारा पैदा की गई विसंगतियाँ, विडंबनाएँ ममता किरण के शे’रों में बेबाकी से अभिव्यक्त हुए हैं— एक रोटी को चुराने की मुक़र्रर है सजा मुल्क़ जो लूट लो, उसकी कोई ताजीर नहीं। हालात ज्यों के त्यों ही रहे मेरे गाँव के काग़ज पे ही विकास की, दिल्ली ख़बर गई। आम इन्सानों के दुःख-दर्द को स्वर देने वाले, समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करने वाले, समाज को सही संदेश देने वाले शे’र भी प्रभावित करते हैं— बहुत से ख़्वाब लेकर शह्र में आया था वो एक दिन मगर दो वक़्त की रोटी बमुश्किल ही जुटाता है। बाग जैसे गूँजता है पंछियों से घर मेरा वैसे चहकता बेटियों से। निरंतर संवेदनशील होते जा रहे समय में, अपने शे’रों में संवेदनाओं को सहेजने का प्रयास भी सराहनीय है— बिटिया तू रसोई से जरा दाने तो ले आ इक आस में बैठा है परिदा मेरे आगे। कच्चा मकाँ तो ऊँची इमारत में ढल गया आँगन में वो जो रहती थी चिड़िया किधर गयी। बदले हुए दौर, रिश्तों का बदला हुआ रूप भी कवयित्री के शे’रों में उभरकर आया है— नगर में जब से बच्चे रह गये और गाँव में दादी लगाए कौन फिर आवाज, परियों को बुलाने की।
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