Description
कबीरदास की वाणी वह लता है, जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी। उन दिनों उत्तर के हठयोगियों और दक्षिण के भक्तों में मौलिक अंतर था। एक टूट जाता था, पर झुकता न था; दूसरा झुक जाता, पर टूटता न था। एक के लिए समाज की ऊँच-नीच की भावना मजाक और आक्रमण का विषय थी, दूसरे के लिए मर्यादा और स्फूर्ति की। और फिर भी विरोधाभास यह कि एक जहाँ सामाजिक विषमताओं को अन्याय समझकर भी व्यक्ति को सबके ऊपर रखता था, वहाँ दूसरा सामाजिक उच्चता का अधिकारी होकर भी अपने को तृण से भी गया-गुजरा समझता था। एक के लिए पिंड ही ब्रह्मांड था तो दूसरे के लिए समस्त ब्राह्मांड भी पिंड। एक का भरोसा अपने पर था, दूसरे का राम पर; एक प्रेम को दुर्बल समझता था, दूसरा ज्ञान को कठोर-एक योगी था, दूसरा भक्त।’
-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी