Description
निरोगयोगसाध्ना
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हम हर क्षेत्रा में आगे बढ़ना चाहते हैं और दिन-रात उसके लिए प्रयास करते रहते हैं। इस आपाधापी में व्यक्ति सबसे अहम चीज को जो नकार देता है वह है ‘स्वयं का स्वास्थ्य’। वह यह नहीं समझते कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु तभी आपके लिए उपयोगी होगी जब आप उसका आनंद लेने के लिए तैयार होंगे। व्यक्ति यदि स्वस्थ नहीं तो संसार की कीमती से कीमती वस्तु भी उसके लिए बेकार है। स्वस्थ जीवन है तो जहान है।
योग द्वारा कैसे व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से संपूर्णतया स्वस्थ रह सकता है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन इस ‘निरोगयोगसाधना’ नामक पुस्तक के माध्यम से किया गया है।
योग दर्शनशास्त्रा में वर्णित सूत्रा षड्दर्शन का ही छठा अंग है। ये षड्दर्शन वेदों के उपांग माने गए हैं। इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निशक्त, छंद, ज्योतिष आदि वेदों के अंग कहलाते हैं जिनके द्वारा वेद मंत्रों के अर्थ का ज्ञान होता है।
योग ऐसी कला है जो प्रकृति और मनुष्य के बीच के अंतर को स्पष्ट कर व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करती है। अर्थात् व्यक्ति योग के माध्यम से इंद्रियों को अपने वश में करने लायक बन जाता है और माया के बंधन से भी स्वयं को तोड़कर मुक्त हो जाता है। योग अनादिकाल से चला आ रहा है और इसकी उपयोगिता व्यक्ति तभी समझ सकता है जब वह योग को स्वयं पर लागू करे, उसमें रम जाए। योग करने वाला व्यक्ति कभी बूढ़ा या बीमारी से ग्रसित नहीं होता।
µभूमिका से