Category: आज की किताब

व्यंग्य समय: नरेन्द्र कोहलीव्यंग्य समय: नरेन्द्र कोहली

देश के शुभचिंतक

“यह वाटिका हमारे मुहल्ले के लोगों के लिए है?” मैंने नगर निगम के अधिकारी से पूछा।

“जी हां!” वह बड़ी वक्रता से मुस्कराया, “वाटिका मेरे मुहल्ले वालों के लिए होती तो मेरे मुहल्ले में होती।”

“तो फिर ये फूल-पौधों के नाम और सैर करने वालों के लिए ये सारे निर्देश आपने अंग्रेजी में क्यों लगवा दिए हैं?” मैंने पूछा, “मेरे मुहल्ले वाले तो अपनी भाषा भी ढंग से लिख-पढ़ नहीं सकते। अंग्रेजी कैसे पढ़ेंगे?”

“ये निर्देश आपके मुहल्ले वालों के लिए नहीं हैं।” वे बोले।

“तो क्या ये निर्देश उन लोगों के लिए हैं, जो यहां कभी नहीं आएंगे?” मैंने पूछा, “क्योंकि आएंगे तो हमारे ही मुहल्ले वाले।”

वे हंसे, “यदि मैं आपको सच्चाई बता दूं तो आपको बुरा लगेगा।” 

“नहीं! सच का क्‍या बुरा मानना।” मैं बोला, “आप बताएं तो!”

“आपके मुहल्ले वाले तो कोई निर्देश मानने से रहे।” वे बोले, “न वे घास पर चलने से रुकेंगे, न वे फूल न तोड़ने के आदेश का पालन करेंगे, न वे बाड़ को सुरक्षित रहने देंगे। तो फिर उनके लिए निर्देश लिखवाने का क्‍या लाभ?”

उनके उत्तर से मैं चमत्कृत हो गया। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हमारे नगर निगम में इस उत्कृष्ट बुद्धि-मेधा के लोग भी हैं। एक भयंकर द्वंद्व मन में लिए मैं किकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया। निर्णय ही नहीं कर पाया कि अपनी कृतज्ञता दिखाने के लिए उनका मुख, हाथ या माथा चूम लूं, उनके कंठ अथवा वक्ष से लग जाऊं; अथवा उनके चरणों पर लोट जाऊं। फिल्‍मी संस्कृति में चुंबन की प्रधानता है, लोक व्यवहार में आलिंगनबद्ध होने की और हमारी परंपरा में चरणों पर लोटना ही अधिक दिखाई देता है।

अपने अनिर्णय ने मुझे ‘कर्म’ के स्थान पर ‘शब्द’ का सहारा लेने को प्रेरित किया। बोला, “यह आपकी ही कूटनीतिक बुद्धि का प्रताप है कि आपने नगर निगम की कर्तव्यपरायणता को भी बचा लिया और हमारे मुहल्ले वालों के चरित्र को भी।”

इस बार चकित होने की बारी उनकी थी। बोले, “मैं कुछ समझा नहीं।”

“क्यों, इसमें ऐसा समझने को क्‍या है?” बोला, “आप ये निर्देश पट्ट न लगाते तो यह आरोप लगाया जाता कि नगर निगम वालों ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया; और आप हिंदी में निर्देश लिखवा देते तो मेरे मुहल्ले वालों पर आरोप लगाया जाता कि वे नियमों और निर्देशों का पालन नहीं करते। अब ऐसे में तो दोनों ही आरोपमुक्त हैं। आपने निर्देश लिखवा भी दिए, और उन्हें यह भाषा पढ़नी ही नहीं आती। ऐसे में वाटिका उजड़ भी जाए तो किसी को दोष नहीं दिया जा सकता।”

“व्यर्थ बात का बतंगड़ मत बनाओ। हमने उनके लिए तो निर्देश लिखवाए ही नहीं।” वे खीजकर बोले, “हमने तो अपने उन विदेशी मेहमानों के लिए, निर्देश अंग्रेजी में लिखवाए हैं, जो निकट भविष्य में यहां आने वाले हैं। अब सोचो तो, वे आएं और हिंदी में लिखे निर्देश न पढ़ पाएं तो उन्हें कितना बुरा लगेगा। वे जान ही नहीं पाएंगे कि उन्हें यहां अपने कुत्तों को टहलना है या नहीं, घास पर जूते पहनकर चलना है या जूते उतारकर, फूल तोड़ने हैं या…”

“पर यहां कौन से विदेशी आने वाले हैं?” मैं बेहद डर गया था, जिस मुहल्ले में दो-चार विदेशी परिवार भी आ जाते थे, वहां मकानों का किराया दोगुना-तीन गुना हो जाता था। मैं अभी किराए पर था। वे विदेशी कुछ देर रुक नहीं सकते कि मैं भी अपना मकान बनवा लूं ताकि एक-आध खंड अच्छे किराए पर उन्हें दे सकूं।

“कौन आएगा, कहना मुश्किल है।” वे बोले, “जब देश के द्वार खोल ही दिए हैं तो कोई आए।”

मैं संभला, “यदि आपका संकेत विदेशी कंपनियों की ओर है तो मैं आपको बता दूं कि वे लोग हमारे मुहल्ले में रहने नहीं आएंगे।”

“यहां रहने के लिए तो अंग्रेज भी नहीं आए थे, पर सारा देश तो उनकी मुट्ठी में सिमट ही आया था।” वे बोले, “ अब आज हम हिंदी में निर्देश लिखवाएं, कल वे आकर अंग्रेजी में लिखवाएं। पैसा तो हमारे ही देश का खर्च होने वाला है। इसलिए हमने पहले ही निर्देश अंग्रेजी में लिखवा दिए हैं ताकि जब वे हमारा सारा देश खरीद लें तो न उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी हो; और न हमारे देश को दो-दो बार धन खर्च करना पड़े। कुछ आगे की भी सोच लेनी चाहिए।” उन्होंने रुककर मुझे देखा, “आखिर लांग-टर्म-प्लैनिंग किसे कहते हैं।… ”

 

दस प्रतिनिधि कहानियाँ: ममता कालियादस प्रतिनिधि कहानियाँ: ममता कालिया

कहाँ मैं, कहाँ मेरी कहानियाँ

रचना हमारी प्रतिनिधि होती है अथवा हम रचना कें प्रतिनिधि होते हैं, यह मैं आज तक तय नहीं कर पाई। कहानी लिखते समय कभी एहसास नहीं होता कि यह हमारी या हमारे समय की पहचान बनेगी। रचना-प्रक्रिया के अपने आंतरिक दबाव होते हैं, जैसे भूख, प्यास और नींद के। लड़कपन से अब तक मेरे साथ एक बात है- मुझे जो कुछ भी होता है, बड़ी जोर से होता है। भूख लगेगी तो इतनी जोर से, प्यास लगेगी तो गला चटक जाएगा, नींद आएगी तो बैठे-बैठे सो जाऊँगी। यही हाल कहानी लिखने का है। दिमाग में अनार की तरह छूटती है कहानी। उसके लाल, हरे, पीले, नीले रंग उड़ रहे हैं, ऐसे कि गिनने में नहीं आ रहे। एक कहानी के चार-चार शीर्षक सूझ रहे हैं-कहानी रसोई में सब्जी जला रही है, संवाद में श्रवणशक्ति चुका रही है, बिस्तर पर नींद उड़ा रही है। एकदम सुनामी लहरों की तरह प्रलयंकारी वेग से आती है कहानी और फिर उतनी ही तीव्रता से वापस हो जाती है। सुबह मस्तिष्क का तट ऐसा वीरान पड़ा होता है क्रि वहाँ घोंधे और सीपियों के सिवा कुछ नहीं होता। जब मैंने लिखना शुरू किया था तब इस किस्म के फ्लैशेज बहुत अधिक आते थे और मैं सोचती थी, एक दिन मैं अखबार निकालूँगी-‘ममता टाइम्स” । हमने प्रेस भी लगाया, अखबार भी छापे, लेकिन वहाँ से ‘ममता टाइम्स! नहीं निकला। मैंने भी अपना इरादा तांक पर रखकर अपनी आधी ऊर्जा नौकरी में लगा दी। मेरे दिल-दिमाग का बावलापन ही मेरी रचनाओं का सबसे बड़ा कारण और कारक रहा है। जब मैं अन्य रचनाकारों का स्टडीरूम देखती हूँ तो दंग रह जाती हूँ-दुर्लभ एकांत, करीने से लगी पुस्तकें, सलीके से बिछा बिस्तर, कंप्यूटर और इंटरनेट सुविधा, कॉफी का इंतजाम ।

मैंने अपनी कहानियों को ऐसी पृष्ठभूमि का ठाट-बाट नहीं दिया, लेकिन हर हाल में लिखा-घर में, कॉलेज में, रेल में, रिक्शे पर; हर उस जगह, जहाँ आसपास जीवन था। बहुत अधिक साफ-सुथरे, सलीकापसंद माहौल में मेरी रचना-प्रक्रिया ठिठुर जाती है। 

मेरे विचार से एक लेखक अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया को जितना समझता है उससे कहीं ज़्यादा उसे उसके अग्रज रचनाकार समझते हैं। समय-समय पर कई वरिष्ठ और साथी लेखकों ने मेरी रचना-प्रक्रिया पर आश्चर्य और आक्रोश दोनों प्रकट किए हैं। श्री उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ में यह विशेषता थी कि वे नए से नए ,लेखक को पढ़ते थे और अपनी राय देते थे। उनके शब्दों में-“मैं यही कह सकतां हूँ कि ममता की रचनाओं में अपूर्व पठनीयता रही है। पहले वाक्य से उसकी रचना मन को बाँध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है, कुछ उसी तरह जैसे उर्दू में कृशन चंदर और हिंदी में जैनेंद्र की रचनाएँ । यथार्थ का आग्रह न कृशन चंदर में था, न जैनेंद्र कुमार में, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियाँ नहीं लिखती, उसकी कहानियाँ ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्योरों का गुंफन, नश्तर का-सा काटता तीखा व्यंग्य और चुस्त-चुटीले जुमले उसकी कहानियों के प्रमुख गुण. हैं। ममता की बहुत अच्छी कहानियों में तीन-चार कहानियों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा-“वसंत-सिर्फ एक तारीख”, “लड़के’, माँ! और “आपकी छोटी लड़की! ।”

अगर सूचना विज्ञान में ऐसा कंप्यूटर निकल आए जो हमारी दिमागी प्रक्रिया को ज्यों का त्यों मॉनिटर पर उतार दे, तो यकीन मानिए, मेरी रचना-प्रक्रिया का ऐसा पेचीदा संजाल सामने आए कि मैं खुद उसका विश्लेषण न कर पाऊँ। कोई ऊर्जा- तरंग है, जो चलती चली जाती है। दिमाग में एक बार में पाँच-पाँच कहानियाँ लिखी जा रही हैं, तीन उपन्यास साथ-साथ चल रहे हैं, दो नाटक मंच पर अभिनीत किए जा रहे हैं

प्रस्तुत कहानियों में कुछ ऐसी हैं, जो अपने आप मुझ तक चली आई हैं। इलाहाबाद में रसूलाबाद घाट पर कतार से खड़ी सरकारी जीपों को देखकर रवीन्द्र और मेरे मुँह से एक साथ यही बात निकली, “भारत सरकार नहाने आई है।” घर लौटकर रवि तो चैन की नींद सो गए, पर मेरे मन में वह दृश्य चक्कर लगाता रहा। यूनिवर्सिटी में छात्रों ने हड़ताल कर रखी थी। दोनों अनुभव लड़के” कहानी में काम आ गए। इस कहानी पर वासु चटर्जी ने “रजनी” सीरियल का अंतिम एपिसोड बनाया था, जो सरकार को इतना नागवार गुजरा कि उन्हें यह धारावाहिक ही बंद कर देना पड़ा। इसी तरह दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही टैक्सी ड्राइवर, होटल दलाल जिस तरह मुसाफिर के सामान पर झपटते हैं, उस अनुभव को ज्यों का त्यों लिखने-भर से “दल्ली’ कहानी लिखी जा सकी। “आपकी छोटी लड़की” मेरे अपने लड़कपन की कहानी है। इस लंबी कहानी को लिखने में जरा भी श्रम नहीं पड़ा। एक बार यादों की डिबिया खोली तो सारे पात्र बाहर निकल पड़े। जब यह कहानी पहली बार साप्ताहिक हिंदुस्तान” में छपी तो पाठकों के इतने पत्र आए कि तत्कालीन संपादक मनोहर श्याम जोशी को इस कहानी पर संपादकीय लिखना पड़ा। उन्होंने कहा कि ममता कालिया की कहानी “आपकी छोटी लड़की” से संकेत मिलते हैं कि साहित्यिक रचना भी लोकप्रिय हो सकती है। हिमांशु जोशी ने मुझसे कहा, “आपकी कहानी छापकर हमारा काम बहुत बढ़ जाता है। हर डाक में डाकिया सिर्फ आपकी कहानी पर चिट्टियों के बंडल डाल जाता है।” इन सब बातों से बड़ी हौसलाअफज़ाई हुई, वरना लिखना तो सागर में सुराही उँडेलने के समान होता है। इतना विशाल हिंदी साहित्य का कोष-इसमें कहाँ मैं, कहाँ मेरी कहानियाँ।

इन दस कहानियों में मैंने अपनी प्रारंभिक कहानी “छुटकारा” इसलिए दी कि उसमें कच्ची धान की बाली की गंध है। मैंने जब लिखना शुरू किया था, प्रायः उस उम्र में आजकल लेखिकाएँ नहीं लिखतीं। आजकल प्रौढ़ अवस्था में वे लिखना शुरू करती हैं, जब कलम-कलाई में चौकननापन आ जाता है। मेरे लिए लेखन साइकिल चलाने जैसा एडवेंचर रहा है, डगमग-डगमग चली और कई बार घुटने, हथेलियाँ छिलाकर सीधा बढ़ना सीखा। समस्त गलतियाँ अपने आप कीं, कोई गॉडफादर नहीं बनाया। बिल्ली की तरह किसी का रास्ता नहीं काटा और किसी को गिराकर अपने को नहीं उठाया। हमारे समय में लिखना, मात्र जीवन में रस का अनुसंधान था; न उसमें प्रपंच था न रणनीति | निज के और समय के सवालों से जूझने की तीघ्र उत्कंठा और जीवन के प्रति नित-नूतन विस्मय ही मेरी कहानियों का स्रोत रहा है। प्रायः विवाह के बाद लड़कियों का परिवेश बदलता है। मेरे साथ ऐसा हुआ होता तो मैं कहीं की न रहती । रवि के और मेरे जीवन में लिखना और पढ़ना, प्रेम करने और लड़ने जितना जरूरी है। इस घर में भी पापा-घर की तरह किताबें ज्यादा हैं, अन्य साज-सामान कम । वैसे घर में किताबें गुम होने की रफ्तार भी मज़े की है। खुद अपनी लिखी किताबें नहीं मिलतीं। मेरे प्रकाशक पहले की छपी मेरी अप्राप्य पुस्तकों के नए संस्करण छापना चाहते हैं, पर किताबें हैं कि मिल नहीं रहीं। कई बार घर की अलमारियों में दफन हो जाती हैं, कभी किसी साहित्य-प्रेमी को अंतिम प्रति भी भेंट चढ़ जाती है। मेरा लिखने का कोई निश्चित समय नहीं है। बिना सोचे-समझे कहानी शुरू कर देती हूँ, मानो शून्य आसमान में सितारा चिपका रही हूँ। पहले तो एकांत ही नहीं मिलता । अगर मिल भी गया तो बजाय लिखने के टी०वी० चैनलों के ऊटपटाँग उत्पात में समय नष्ट करती हूँ।न लिखा जाए तो रसोई की ओर कूच कर जाती हूँ और रसोई में कोई काम बिगड़ जाए. तो पाँव पटकती कमरे में आ जाती हूँ, जहाँ हरदम मेरे कागज फैले रहते हैं। कई बार दो-चार कागज उड़कर गायब भी हो जाते हैं। लोग जीवन में अराजक होते हैं, मैं लेखन में अराजक हूँ। इस सबके बावजूद, जब भी, जो भी मैंने अब तक लिखा, उसे मैं स्वीकार करती हूँ। मैं अपनी हर कहानी पर. यह शपथ-पत्र लगा सकती हूँ कि यह मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस करते हुए लिखी। हर कहानी को अपने कलेजे की गर्मी से सेंका और पकाया। कितना ही यथार्थ अपनी नसों पर झेला, कितना कुछ औरों को झेलते देखा। जिस वक्‍त जो लिखा उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। हर हाल में लिखा, हर मूड में लिखा। अपना गुस्सा, अपना प्यार, अपनी शिकायतें, अपनी परेशानियाँ तिरोहित करने में लेखन को हरसू मददगार पाया। जो कुछ रू-ब-रू कहने में सात जनम लेने पड़ते, वह सब रचनाओं में किसी न किसी के मुँह में डाल दिया। मेरा यकीन है कि लेखन से अच्छा जीवनसाथी मुझे क्या, किसी को भी नहीं मिल सकता।

—ममता कालिया